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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं २५० श्रावक वर्ग का प्रतिनिधित्व किया, शेष २६ मासक्षपण बहिनों ने किए। छह मासक्षपण के पूर के दिन ११ अगस्त को नगर में सभी कत्लखाने बन्द रहे व अबोध मूक जीवों को अभय दान मिलने से अहिंसा प्रतिष्ठित हई। दिनांक १२ अगस्त को 'सामायिक दिवस के अवसर पर कभी सामायिक नहीं करने वाले युवा-बंधुओं ने भी सामायिक का आराधन कर गुरु हस्ती के सामायिक सन्देश को जीवन में अपनाया। संवर-साधना के रूप में इस दिन ५०० दयावत हुए। यह चातुर्मास २७ मासक्षपण तप, २५० अठाई तप, ६०० आयम्बिल एवं पर्युषण में ग्यारह रंगी दया पौषध के आराधन से सम्पन्न हुआ। २७ दम्पतियों ने आजीवन शीलवत अंगीकार कर अपने जीवन को शील सुवास से सुरभित किया। चातुर्मास अवधि में आप ज्वरग्रस्त हुए, स्वास्थ्य चिन्ताजनक हो गया। आराध्य गुरुदेव के स्वास्थ्य की स्थिति से भक्त समुदाय व संघ के कार्यकर्ता विचलित थे। उनके मन में अनिष्ट आशंका के अनेक संकल्प-विकल्प जन्म लेने लगे। शिष्य-परिवार भी गुरुदेव के स्वास्थ्य को लेकर चिन्तित था। पं. रत्न श्री हीरामुनि जी (वर्तमान आचार्य प्रवर) ने आपके स्वास्थ्य को लेकर चतुर्विध संघ की चिन्ता व्यक्त की तो आपने फरमाया - ‘अभी मेरे संथारे का समय नहीं आया है।' तभी आपने अपने संथारा-स्थल के कुछ संकेत बताए , जिन्हें पं. मुनि श्री द्वारा अपनी दैनन्दिनी में अंकित कर लिया गया। कहने की आवश्यकता नहीं कि निमाज के सुशीला भवन में ये सारे संकेत यथार्थ रूप में मिले। ___ स्वास्थ्य की विषम स्थिति में भी धीर-वीर-गम्भीर पूज्यपाद के मन में कोई ऊहापोह नहीं था। भेदज्ञान विज्ञाता यह महापुरुष तो आत्म-चिन्तन में लीन था -“काया का पिंजर ने पंछी, मत घर मान खरा।" हे आत्मन् पंछी ! तूने कमों के वशीभूत इस देह पिंजर को धारण कर रखा है, वस्तुत: यह तेरा घर नहीं है, तूं तो अजर-अमर-अक्षय-अव्याबाध मोक्ष नगर का वासी है। तन में व्याधि, पर मन में अपूर्व समाधि थी। आपका चिन्तन था-"रोग शोक नहीं देते, मुझे जरा मात्र भी त्रास, सदा शान्तिमय मैं हूँ, मेरा अचल रूप है खास"। ये रोग इस विनश्वर देह को त्रास दे सकते हैं मुझे कोई कष्ट नहीं पहुँचा सकते हैं, क्योंकि मैं तो अक्षय शान्ति का भंडार हूँ, सुख-दुःख सभी परिस्थितियों में सदा अविचल रहने वाला अविनाशी आत्मा हूँ। आत्मचिन्तन के तेज से दीप्त आनन पर अपूर्व शान्ति का दर्शन कर चिकित्सकगण विस्मय विमुग्ध थे। शारीरिक असमाधि में आत्म-समाधि का यह अपूर्व नजारा देख वे सहज ही | योगिराज के चरणों में श्रद्धावनत हो धन्य-धन्य कह उठते । आत्म-बल, समाधि एवं उपचार से आपने त्वरित स्वास्थ्यलाभ प्राप्त किया। आपके स्वास्थ्य-लाभ से भक्तों की समस्त आशंकाएं दूर हुई और संघ में हर्ष की लहर दौड़ गई। ३१ अक्टूबर १९८४ को भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी की हत्या के पश्चात् फैली हिंसा के प्रसंग | से कर्तव्यबोध कराते हुए आपने फरमाया___“प्रतिशोध के वातावरण में यदि कोई अविवेकपूर्ण कदम उठाया जाता है तो वह सदैव हानिकारक होता है। यह देश की खुशनसीबी है कि पक्ष और विपक्ष के सब लोग चाहते हैं कि देश में शांति हो, लोग मिल-जुल कर रहें, देश का अहित न हो। हम साधक भी यही चाहते हैं कि सभी लोग सहयोग की भावना से कार्य करें और देश में शांति बनाये रखें।" _ “अगर देश में शांति होगी तो धर्म-साधना में भी शांति रहेगी। ठाणांग सूत्र के अनुसार राष्ट्र के शासक के दिवंगत होने पर अस्वाध्याय होती है। बुधवार को जब हमें दिन में यह सूचना मिली तो हमने शास्त्रों का स्वाध्याय
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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