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________________ प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड २३९ | है कि तुम श्रमणधर्म ग्रहण करो, साधुवृत्ति अंगीकार करो। सम्पूर्ण अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह का | पालन करो। यदि तुम महाव्रत नहीं ले सकते हो तो अणुव्रत लो । सर्वथा क्रियाशून्य मत रहो । बिना मर्यादा के मत रहो । श्रावक धर्म को स्वीकार करने से मानव शान्ति की ओर बढ़ सकता है। " २५ जून को निवाई से विहार कर कौथून, चाकसू, शिवदासपुरा, बीलवा सांगानेर आदि क्षेत्रों को फरसते हुए पूज्यप्रवर १ जुलाई को जयपुर के महावीर नगर में पधारे एवं श्री चन्द्रराजजी सिंघवी के बंगले बिराजे। यहां करुणाकर गुरुदेव के दर्शनार्थ जयपुर के आबालवृद्ध नर नारियों का तांता लग गया। सिंघवी दम्पती ने आजीवन शीलव्रत अंगीकार कर अपने जीवन को धन्य किया । ३ जुलाई ८३ को आचार्य श्री साधना भवन बजाज नगर पधारे, यहाँ धुलिया में दिवंगत स्वामी जी श्री ब्रजलाल जी म. को श्रद्धांजलि देने हेतु व्याख्यान स्थगित कर कायोत्सर्ग किया गया। आचार्य श्री सौहार्द और वात्सल्य की प्रतिमूर्ति थे । चतुर्विध संघ के सदस्य किसी सम्प्रदाय या जाति के हों, किसी देश या प्रान्त के हों, दीक्षा | पर्याय अल्प या अधिक हो, उनकी उदार गुणग्राहकता चारित्र की कसौटी पर परख करती थी और वे चारित्रात्माओं | के प्रति अनन्य वात्सल्य भाव रखते थे । यहाँ श्री बलवन्तराजजी सिंघवी ने सजोड़े शीलव्रत अंगीकार किया । साधना - भवन में श्री जैन सिद्धान्त शिक्षण संस्थान में अध्ययनरत छात्रों से चर्चा कर उनका मार्गदर्शन किया । ४ जुलाई को श्री सिरहमल जी नवलखा ने अपने निवास पर विराजित आचार्यप्रवर के श्रीमुख से सजोड़े शीलव्रत अंगीकार किया । तदनन्तर पूज्यप्रवर श्री गुमानमलजी चोरड़िया एवं श्री पूनमचन्दजी हरिश्चन्द्रजी बडेर के बंगले पर विराजे । जयपुर में आपके इस प्रवास में श्री चुन्नीलालजी ललवाणी के नेतृत्व में घर-घर जाकर चलाये गये | अभियान से बड़ी संख्या में श्रावक-श्राविका सामूहिक प्रार्थना एवं सामायिक साधना से जुड़े । १६ जुलाई को प्रख्यात वैज्ञानिक तथा जैन दर्शन के विद्वान डॉ. डी. एस. कोठारी ने आचार्य श्री के सान्निध्य में आयोजित विचार गोष्ठी 'वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जैन धर्म की खोज' विषय पर महत्त्वपूर्ण एवं नूतन चिन्तन प्रस्तुत किया। आचार्यप्रवर के साथ डॉ. डी. एस. कोठारी की विद्युत् एवं अग्नि के सम्बन्ध में चर्चा हुई। संगोष्ठी में यह चिन्तन उभरा कि आज धर्म में व्यवहार के स्थान पर व्यवहार में धर्म की अधिक आवश्यकता है। जयपुर चातुर्मास (संवत् २०४०) वि. संवत् २०४० के चातुर्मास की खुशी में जयपुर संघ में प्रबल उत्साह, गुरुश्रद्धा में समर्पण का भाव, व्रत- प्रत्याख्यान द्वारा जीवन निर्माण की उमंग व अभिरुचि परिलक्षित हो रही थी । १८ जुलाई १९८३ को | चातुर्मासार्थ लालभवन सभी सन्तों के साथ आपके प्रवेश के अवसर पर विशाल जनमेदिनी अगवानी को उपस्थित थी । 'शासनपति श्रमण भगवान महावीर की जय', 'परमपूज्य आचार्य हस्ती की जय', 'जैन धर्म की जय' के | जयघोष करते हुए उल्लसित भक्तों की उपस्थिति ने सहज एक भव्य दृश्य उपस्थित कर दिया । स्थानीय श्रद्धालुओं के अतिरिक्त इस मंगलप्रवेश के अवसर पर अनेक स्थानों के श्रावक-श्राविका भी उपस्थित थे। अपने मंगलमय उद्बोधन में आचार्यप्रवर ने जयपुर संघ के साथ अपनी यशस्विनी परम्परा के ऐतिहासिक संबंध की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए फरमाया कि "विक्रम संवत् की १६ वीं शती के अन्त में जयपुर स्टेट के दीवान श्री टोडरमल जी थे। उस समय | किसी स्थानकवासी तपस्वी सन्त का अकस्मात् जयपुर आगमन हुआ। उनकी तेजस्विता एवं तपस्या के प्रभाव से | दीवान सा. विशेष प्रभावित हुए और तब से इस क्षेत्र में स्थानकवासी संतों का आगमन प्रारम्भ हुआ। " के “हमारी परम्परा के पूज्य आचार्यों एवं मुनिराजों का यहाँ विशेषतौर से आगमन होता रहा । हम जयपुर •
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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