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________________ २०० नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं व उल्लास के साथ ही २४ दिसम्बर को आचार्यप्रवर के सान्निध्य में २३वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ का | जन्म-कल्याणक सामूहिक दयाव्रत के साथ मनाया गया। धुलिया की ओर अवन्ती में धर्मोद्योत की पावन अमृतधारा बहाकर आचार्य श्री ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए २८ दिसम्बर को | पुनः इन्दौर पधारे । यहाँ तपस्वीराज श्री लालमुनि जी म.सा. व पंडित श्री कानमुनि जी म.सा. अगवानी हेतु आपके सामने पधारे। सामायिक स्वाध्याय के पर्याय आचार्य भगवन्त द्वारा वर्षावास में लगी स्वाध्याय बगिया का पुनः | सिंचन करने पर सबने प्रमोद व्यक्त किया । ७ जनवरी १९७९ को जोधपुर में प्रातः ५.३० बजे पंडित श्री बड़े लक्ष्मी चन्द जी म.सा का देवलोक गमन हो गया, व्याख्यान स्थगित रखकर प्रकाश दाल मिल के भवन में | प्रातः १० बजे सभा में चार लोगस्स से श्रद्धाञ्जलि अर्पित की गई। परम श्रद्धेय आचार्यप्रवर ने फरमाया- 'रत्नवंश रूपी बहुमूल्य हार की एक अनमोल मणि निकल गई है।' पं. रत्न श्री लक्ष्मी चन्द जी म. सा. वास्तव में एक बहुमूल्य रत्न मणि थे। आप मर्मज्ञ शास्त्रवेत्ता, आगम रसिक, शोधप्रिय इतिहासज्ञ एवं विशुद्ध श्रमणाचार पालक और प्रबल | समर्थक सन्त थे । लगभग ५६ वर्षो की सुदीर्घ अवधि तक अनन्य निष्ठा के साथ श्रमणधर्म का पालन करते हुए | आपने अनेक हस्तलिखित एवं प्राचीन ग्रन्थों का अनुशीलन कर स्थानकवासी परम्परा के विशिष्ट कवियों, तपस्वियों, | साध्वियों आदि के जीवन और कृतित्व पर प्रकाश डाला। श्री रतनचन्द्र पद मुक्तावली, सुजान पद सुमन वाटिका, | तपस्वी मुनि बालचन्द्रजी, सन्त- जीवन की झांकी आदि अनेक कृतियां आपके परिश्रम से ही प्रकाश में आ सकीं । | सन्त-सतियों के विद्याभ्यास में आपकी गहन रुचि थी और समय-समय पर आप उनको पढ़ाया भी करते थे । सं. | १९६५ में मारवाड़ के हरसोलाव ग्राम में श्री बच्छराजजी बागमार की धर्म पत्नी श्रीमती हीराबाई की कुक्षि से जन्मे | लूणकरण जी अल्पायु में पिताश्री का वियोग होने पर विक्रम संवत् १९७९ मार्गशीर्ष शुक्ला पूर्णिमा को १४ वर्ष की वय में मुथाजी के मंदिर, जोधपुर में आचार्यप्रवर श्री शोभाचन्द्रजी म.सा. के सान्निध्य में भागवती दीक्षा अंगीकार कर मुनि लक्ष्मीचन्द बन गए थे। आपको प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, राजस्थानी आदि भाषाओं का अच्छा ज्ञान था। | पुराने सन्त सतियों का जीवन चरित्र, जो सहज उपलब्ध नहीं होता था, उसे श्रमपूर्वक खोज कर आपने समाज के सामने रखा। संयम धर्म की उपेक्षा आपको कतई पसन्द नहीं थी । आप सत्य बात कहने में स्पष्ट रहते थे । अन्दर | और बाहर से आप एक थे । सरल एवं भद्रिक प्रकृति के सन्त थे । लम्बे कद एवं सुडौल देहधारी पण्डित श्री | लक्ष्मीचन्दजी महाराज विहार का सामर्थ्य न रहने पर गत दो वर्षों से जोधपुर में स्थिरवास विराजित थे । आपके सुशिष्य श्री मानमुनि जी म.सा. ने आपकी तन-मन से सेवा कर एक अनूठा आदर्श प्रस्तुत किया। बाबा जी श्री जयन्तमुनि जी एवं बसन्त मुनि जी ने भी सेवा का लाभ लिया। कालधर्म को प्राप्त होने के लगभग १० दिन पूर्व पाट से गिर जाने के कारण आपकी गर्दन की हड्डी टूट गई थी, जिसके अनन्तर आपने देह की विनश्वरता को | जानकर आचार्यप्रवर की स्वीकृति मिलने पर आलोचना प्रायश्चित्तपूर्वक चित्त को समाधि में लगा लिया था। आपके देहावसान पर जोधपुर, पीपाड़, पाली, भोपागढ, फलौदी, मंडावर, ब्यावर, सोजत सिटी, रतलाम, मेड़ता सिटी, जयपुर आदि अनेक स्थानों पर श्रद्धाजंलि अर्पित कर गुण-स्मरण किए गए। मरुधर केसरी श्री मिश्रीमलजी म.सा. ने काव्य रूप में अपने उद्गार व्यक्त करते हुए कहा - ले गयो जस लक्ष्मी मुनि, झोलो भर-भर जोर । शिष्य सुजान की साधना मानी दूनी कठोर ॥
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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