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प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड
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इसके अतिरिक्त तपस्या पर आडम्बर और लेन-देन न करने तथा मृत्यु भोज न करने पर भी बल दिया गया। बरेली के नोहरे में 'श्री वर्धमान जैन रत्न पुस्तकालय' का शुभारम्भ हुआ । चातुर्मास समापन अवसर पर स्वाध्याय संघ के संयोजक श्री सम्पतराज जी डोसी का अभिनंदन किया गया।
अभी तक चतुर्विध संघ की सार सम्हाल व संघ सदस्यों से सम्पर्क का कार्यभार सम्यग् ज्ञान प्रचारक मंडल द्वारा सम्पादित किया जा रहा था। मंडल पर साहित्य प्रकाशन, स्वाध्याय संघ के संचालन आदि अन्य महनीय कार्यों | का दायित्व भी था । अनेक सुज्ञ एवं संगठन प्रेमी श्रावकों की लम्बे समय से भावना थी कि संघ श्रावकों का औपचारिक संगठन कायम किया जाकर संघ सदस्यों के संगठन, समन्वय व उनसे सतत सम्पर्क का कार्य व्यवस्थित रूप से आगे बढाया जाय। इस चातुर्मास काल में ब्यावर में विभिन्न क्षेत्रों के श्रावकों का सम्मलेन हुआ एवं सर्वसम्मति से 'अखिल भारतीय श्री जैन रत्न हितैषी श्रावक संघ' के नाम से श्रावक संघ का औपचारिक संगठन कायम किया गया । न्यायमूर्ति श्री सोहननाथ जी मोदी को संस्थापक अध्यक्ष मनोनीत किया गया और नवयुवक ज्ञानेन्द्रजी | बाफना को मंत्री पद का दायित्व सौंपा गया। संघ संगठन कायम करने में भीलवाड़ा निवासी दृढ संघनिष्ठ सुश्रावक श्री पांचूलालजी गांधी व जयपुर निवासी संगठनप्रेमी श्रावक श्री चन्द्र सिंहजी बोथरा की महनीय भूमिका थी। बाड़मेर की ओर
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ब्यावर से विहार कर आप जैतारण, सोजत, राणावास, नाडोल होते सादड़ी, फालना, सांडेराव, तखतगढ़ को पावन करते हुए आहोर पधारे। आहोर तथा गोदन में आपने प्राचीन हस्तलिखित भण्डारों का अवलोकन किया। आपके जालोर पदार्पण पर शिक्षाविदों, न्यायविदों तथा विज्ञानविदों के साथ धर्म-चर्चा का चिरस्थायी प्रभाव रहा। यहाँ से ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए आप सिवाना पधारे, जहाँ धार्मिक पाठशाला का शुभारम्भ हुआ, स्वाध्याय की प्रवृत्ति अभिवृद्ध हुई । यहाँ से कुशीप, थापण, आसाढा, नाकोडा, सिणली, डांडाली, सणपासरनु, रावतसर आदि को पावन कर बाड़मेर पधारे । यहाँ पर श्री मधुकरजी म. एवं श्री कन्हैयालालजी म. 'कमल' के साथ मधुर मिलन हुआ ।
माकमुनि जी का संथारा
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पूज्यवर्य का विहार क्रम बाड़मेर की ओर था। इधर जोधपुर में विराजित भजनानन्दी श्री माणकमुनि जी | महाराज साहब ने संथारा स्वीकार कर लिया ।
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इधर संथारा दिन प्रतिदिन आगे बढ रहा था, उधर गुरुदेव के चरण बाड़मेर की ओर बढ़ रहे थे । संथारास्थ | मुनिवर्य की भावना बलवती थी, मन में प्रबल विश्वास था कि जीवन की इस अंतिम बेला व अंतिम मनोरथ की पूर्णाहुति में जीवन के अनन्य उपकारी संयमदाता महनीय गुरुदेव दर्शन व साज देने एवं पाथेय प्रदान करने अवश्य | पधारेंगे। जन-मानस में भी यह चर्चा थी कि गुरुदेव के बाड़मेर की ओर बढ़ते चरण इस बात के इंगित हैं कि संथारा अभी लम्बा चलना है। संथारा आगे बढ़ रहा था, स्वास्थ्य में निरन्तर सुधार हो रहा था, आत्मबल बढ़ रहा था ।
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संथारा-ग्रहण के पूर्व जो साधक भयंकर क्षुधारोग से त्रस्त था, भूख जिसे असह्य थी, आज अपने अंतिम मनोरथ की साधना में शांत सहज लेटे आत्मभाव में लीन था । मानो जीवन की सभी इच्छाएँ आकांक्षाएँ पूर्ण हो गई हों, आत्म-विजय का यह अपने आप में अद्वितीय उदाहरण था । महामुनि के चेहरे पर अपूर्व तेज था। दर्शनार्थी ही नहीं अन्य धर्मों के साधक, फक्कड़ भी समाधिस्थ महात्मा को देखकर आश्चर्याभिभूत रह जाते । बाड़मेर पधारने के पश्चात् पूज्य गुरुदेव का पुनः | जोधपुर की ओर विहार हुआ और उग्र विहार कर २८ फरवरी १९७६ को गुरु भगवन्त जोधपुर पधारे ।