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________________ १५८ _ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं भगवन् पाप से मुक्त करो, विमल ज्ञान उद्योग करो। दुर्बलता मन दूर करो, साहस का भण्डार भरो ।। शरण तुम्हारा श्री वर्धमान , आज्ञा पालूँ हो बलवान् । शुद्ध-बुद्ध में निर्मल रूप, काम क्रोध नहीं मेरा रूप ।। नाथद्वारा में पूज्यपाद के विराजने से लगभग ४०-५० दयाव्रत हुए सामायिक एवं स्वाध्याय की ज्योति जगी।। कांकरोली एवं नाथद्वारा क्षेत्र में वकील, शिक्षक, सी. ए , इंजीनियर आदि का पढा-लिखा वर्ग भी चरितनायक के 'साधना क्यों? विषयक प्रवचन से प्रभावित हुआ। यहां से कुंवारिया, पोटला होते हुए साहडा पधारे, जहाँ श्री वल्लभमुनिजी गंगापुर से अगवानी हेतु सामने उपस्थित हुए। वहाँ से गंगापुर होकर भीलवाड़ा पधारे। कलक्टर नारायणदास जी मेहता को रात्रिकालीन प्रश्नचर्चा में गुणस्थानों के सम्बन्ध में अपनी जिज्ञासाओं के समाधान प्राप्त कर प्रमोद हुआ। वहाँ से मांडलगाँव, वेरा, सरेडी, कंवलियास में धर्म-प्रेरणा करते हुए गुलाबपुरा पधारे। श्री कुन्दनमुनि जी एवं श्रावक-श्राविका सामने अगवानी में उपस्थित थे। श्री वल्लभमुनिजी ने चरितनायक की स्तुति में अष्टक सुनाया, जिसका प्रथम पद्य इस प्रकार था - श्रामण्यदीक्षां जिनधर्म शिक्षाम् तत्त्वसमीक्षां, भवतो मुमुक्षाम् । बाल्यात्प्रभृत्येव तु य: सिषेवे विद्ववरोऽयं जयताद् गजेन्द्रः ।। यहां आपकी पं. श्री शोभाचन्द्र जी भारिल्ल से इतिहास विषयक बातचीत हुई। यहाँ के विद्यालय एवं छात्रावास के विद्यार्थियों को स्वाध्याय के महत्त्व और उपयोग पर प्रेरणात्मक सन्देश दिया। फिर चैत्रशुक्ला २ संवत् २०२४ को आपाक विजयनगर पदार्पण हुआ। दो दिन पश्चात् यहाँ सम्वत्सरी के सम्बन्ध में वार्तालाप हेतु ब्यावर से शिष्टमण्डल उपस्थित हुआ। चरितनायक ने अपना मन्तव्य फरमाया – “आषाढी चौमासी से ४९-५० दिन से सम्वत्सरी पर्व हो। अर्थात् चातुर्मास में मास वृद्धि की स्थिति में दो श्रावण हो तो दूसरे में और दो भाद्रपद हो तो प्रथम में पर्व मनाया जावे, तो कोई बाधा नहीं।" चरितनायक श्रमणसंघ की गिरती स्थिति से चिन्तित थे। उनका चिन्तन इस प्रकार था -"समयधर्मी ग्रुप से हमारे विचारों का मेल सम्भव नहीं लगता।" यहाँ से राताकोट बांदनवाड़ा, झडवासा, नसीराबाद, दांता होते हुए आप अजमेर पधारे, जहाँ फरमाया कि सामायिक के आन्तरिक अभ्यास से मोह का जोर घटाया जा सकता है। यहाँ पर महावीर जयन्ती सहित दो दिन विराजकर आपने जयपुर की ओर विहार कर दिया। वैशाख कृष्णा ११ को मोती डूंगरी, जयपुर में प्रवचन करते हुए शास्त्र-रक्षण के सम्बन्ध में फरमाया – "द्वादशांगी वाणी अर्थ से नित्य एवं शब्द से अर्वाचीन है। भगवान् महावीर के पश्चात् ९८० वर्ष तक यह परम्परा चलती रही। तब देवर्धिगणी ने आगम लिपिबद्ध कराये। उनके अनुग्रह से ही हमको आज श्रुत उपलब्ध हो रहा है। इसका संरक्षण करना हमारा पवित्र कर्तव्य है। " वैशाख शुक्ला तृतीया को लालभवन में अनेक स्थानों के श्रावकों ने अपने-अपने क्षेत्र की विनतियाँ प्रस्तुत की। वैशाख शुक्ला ६ सं. २०२४ को गीजगढ निवासी श्री कुन्दनमल जी चोरडिया एवं श्रीमती रूपवती जी चोरडिया की सुपुत्री रतनकंवर जी का दीक्षा-समारोह सम्पन्न हुआ, जिन्हें महासती श्रीमदनकंवर जी म.सा. की शिष्या घोषित किया गया। बड़ी दीक्षा के दिन लालभवन में राजस्थान विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. माथुर से शैक्षिक वातावरण के सम्बन्ध में वार्तालाप हुआ।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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