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________________ (१४२ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं वह पाप को पाप और षट्कायिक जीवों को अपने समान समझता है। चतुर्थ से तेरहवें गुणस्थान तक की श्रद्धा प्ररूपणा एक है, समान है, क्षयोपशम का अंतर होने पर भी दोनों की दृष्टि एक है। ज्ञान के बिना कषाय का जोर नहीं हटता, आप भी स्वाध्याय शील रहें तो आचार की त्रुटियाँ सहज दूर हो सकती हैं।" अष्टमी को अपने प्रवचन में आपने नय निरूपण करते हुए फरमाया - “महावीर ने कहा - सापेक्ष वचन सत्य है। सिक्के का एक बाजू मुद्रांकित और दूसरा राज सिंहासन अशोक चक्र वाला है। सिक्के के दोनों बाजू समझने पर ही उसका पूर्ण परिचय हो सकता है। मंडप का खंभ मेरी दृष्टि से पूर्व में ही है, पूर्व वाले की अपेक्षा पश्चिम, दक्षिण वाले से उत्तर और उत्तर वाले से दक्षिण में कहना सर्वमान्य है। प्रत्येक वचन अपना कथन करता है पर दूसरे का निषेध नहीं करता, यही सुनय है।" नवमी को अपने प्रभावोत्पादक प्रवचनामृत में चरितनायक ने फरमाया - “प्रभु ने दो मार्ग बतलाये हैं एक विचार का और दूसरा आचार का। विचार मार्ग में ज्ञान, दर्शन समाविष्ट हैं एवं आचार मार्ग को साधु और गृहस्थ की दृष्टि से, त्याग की पूर्णता की दृष्टि से भिन्न भिन्न कर दिया है।” दशमी को चरितनायक ने अपने हृदयोद्बोधकारी प्रवचन में धर्ममार्ग में पुरुषार्थ की महिमा निरूपित करते हुए फरमाया - "त्यागी पुरुष संसार के भोगों का अमूर्छित भाव से उपभोग कर मधुमक्खी की तरह उड़ जाता है, किन्तु रागी-अज्ञानी मल की मक्खी की तरह फंस कर प्राण गंवा देता है। दुःखमय संसार में प्राणियों की रति देख कर शास्त्रकार भी आश्चर्य करते हैं-“अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसंति जंतुणो"। • मुमुक्षुद्वय की दीक्षा वैशाख शुक्ला १३ सोमवार ६ मई १९६३ को सरदार हाई स्कूल के प्रागंण में ५८ वर्षीय मुमुक्षु श्री मगनराजजी मुणोत (सुपुत्र श्री सोनराजजी एवं अमरकंवर जी मुणोत) और बालब्रह्मचारी मुमुक्षु श्री मानचन्द्र जी सेठिया (सुपुत्र श्री अचलचन्दजी एवं छोटा बाई जी सेठिया) की भागवती दीक्षा सोल्लास सम्पन्न हुई। वीर पिता श्री अचलचंद जी सेठिया ने चारों खन्ध (सचित्त जल का त्याग, रात्रि चौविहार-त्याग, ब्रह्मचर्य पालन, हरी का त्याग) किए। महामन्दिर मे बड़ी दीक्षा हुई। म.सा. वर्तमान में उपाध्यायप्रवर के रूप में प्रतिष्ठित होकर जिन शासन की सेवा कर रहे हैं। दीक्षा के पश्चात् महामन्दिर एवं मुथाजी के मन्दिर पधारे । पुन: सरदारपुरा होकर जस्टिश भंडारी जी के बंगले पहुँचे । वहाँ शान्तिनाथ की प्रार्थना के बाद सभी आगन्तुकों को दस मिनट प्रार्थना एवं स्वाध्याय के नियम की प्रेरणा की। जोधपुर के उपनगरों को फरसने के बाद यहाँ से आपका विहार हुआ। बनाड़ होते हुए आप ज्येष्ठ शुक्ला षष्ठी को जाजीवाल पधारे। भीषणगर्मी व लू के कारण आपके अन्तेवासी सुशिष्य श्री सुगनमुनिजी का असामयिक स्वर्गवास हो गया। लाडपुरा निवासी श्रीमान चुन्नीलालजी एवं श्रीमती अलोलबाई के सुपुत्र इस साधक ने ज्येष्ठ शुक्ला दशमी संवत् २०१० को दीक्षा अंगीकार की थी। आप थोकड़ों के ज्ञाता सरल मनस्वी संतरत्न थे। संयम में प्रतिपल जागरूकता आपके जीवन में झलकती थी। थोकड़े सीखने सिखाने में आपकी विशेष अभिरुचि थी। मारणान्तिक उपसर्ग आने पर भी आपने हंसते हंसते मृत्यु का वरण स्वीकार किया। संयम के उत्कृष्ट पर्याय आचार्य देव के चरणों में जिन्होंने अपना जीवन समर्पण किया, गुरुदेव की शिक्षा को जिन्होंने भगवत् प्रसाद के रूप में सहज स्वीकार किया वे महापुरुष भला उपसर्गों से कब घबराने वाले थे।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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