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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं
शेषकाल में आप ब्यावर से सेंदडा, बर, बिरांठिया, झूठा, रायपुर, सोजत होते हुए पाली पधारे। आचार्य श्री | द्वारा आस-पास के क्षेत्रों में विचरण करते समय वयोवृद्ध स्वामीजी श्री सुजानमलजी म.सा. की तबीयत अचानक | खराब हो गई । अतः उनको पाली रखकर आचार्य श्री का ठाणा ३ से ब्यावर चातुर्मासार्थ विहार हुआ ।
• ब्यावर चातुर्मास (संवत् २००५)
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ब्यावर नगर
प्रवचन, शास्त्र वाचन, शंका-समाधान एवं प्रश्नोत्तर के अतिरिक्त चरितनायक का अधिकांश समय शास्त्रों की टीकाओं, चूर्णियों, भाष्यों, निर्युक्तियों आदि के अध्ययन- अवगाहन में व्यतीत हुआ । यहाँ से श्रीचन्दजी अब्बाणी, श्री विजयराजजी चौधरी, श्री सोहनमलजी डोसी आदि श्रावकों ने बड़ी लगन से चतुर्विध संघ-सेवा का लाभ उठाया। संघ हितैषी श्रावकों के सहयोग से यह वर्षावास कुन्दन भवन में आनन्दपूर्वक सम्पन्न हुआ । इस चातुर्मास में महासती श्री बदनकंवजी म.सा. आदि साध्वी- मण्डल के विराजने से महिलाओं में भी धर्माराधन का ठाट रहा ।
यहाँ से विहार कर अजमेर में कल्याणमलजी उमरावमलजी ढड्ढा के भवन में विराजे तब आचार्य श्री ने | वयोवृद्धा महासती छोगा जी और रत्नवंशीय गणमान्य श्रावकों के विनम्र, किन्तु आग्रहपूर्ण निवेदन पर मर्यादोचित प्रायश्चित्त प्रदान कर उन मुनिद्वय वयोवृद्ध मुनि श्री लाभचन्द जी और मुनि श्री चौथमलजी को संघ में सम्मिलित किया, जिन्हें न्याय डूंगरी नामक ग्राम में बिना आज्ञा के स्वेच्छापूर्वक चातुर्मास की हठ के कारण संवत् १९९९ आज्ञाबाहर कर दिया था। आचार्य श्री आचार- पालन के प्रति कठोर थे । इसीलिए उन्होंने आठ सन्तों में से भी दो के कम होने की परवाह किए बिना उन्हें स्वच्छन्द विचरण करने पर आज्ञा बाहर कर दिया था। अब दोनों सन्त अपनी भूल का एहसास करते हुए पूर्ण प्रायश्चित के साथ नतमस्तक होकर गुरुदेव की आज्ञा में आ गए। दोनों सन्तों ने आचार्य श्री द्वारा प्रदत्त प्रायश्चित्त जिस सरलता, विनम्रता एवं सहज समर्पण के साथ स्वीकार किया वह अपने आप | अद्वितीय था। संघ में जहां एक ओर दोनों मुनियों के पुनः आने की प्रसन्नता थी वहीं दूसरी ओर दीर्घ दीक्षापर्याय | वाले सन्तों को दीक्षा-छेद व पुनर्दीक्षा जैसे कठोर प्रायश्चित्त दिए जाने की सहानुभूति में नयनों से अश्रु छलक आना भी स्वाभाविक था । प्रायश्चित्त स्वीकार करते मुनियों में समर्पण के उत्कट भाव के साथ ही यशस्विनी निज परम्परा में लौट आने की गौरवपूर्ण प्रसन्नता स्पष्टतः झलक रही थी। इस प्रकार आचार्य श्री हस्ती का दृढनिश्चय कठोर | अनुशासन, आचार-निष्ठा तथा गणना की अपेक्षा गुणों की प्राथमिकता का संदेश स्वतः ही प्रतिध्वनित हो रहा था । यहाँ पर ही एक घटना और घटी। पंजाब से दो सन्त श्री शान्ति मुनि एवं श्री रतनमुनि साधुवेश का परित्याग | कर आचार्य श्री की सेवा में उपस्थित होकर पुन: दीक्षा की याचना करने लगे। उनकी आन्तरिक प्रबल आकांक्षा और प्रार्थना से द्रवीभूत होकर आचार्य श्री ने उन दोनों को पुनः श्रमण धर्म में दीक्षित किया। ये दोनों सन्त बिना किसी | की प्रेरणा के स्वत: ही आत्म-भाव से यहाँ आए थे। इनमें रतन मुनि जी गृहस्थ पर्याय में आचार्य श्री द्वारा प्रतिबोध | प्राप्त थे, किन्तु उनकी माता एवं धर्मपत्नी के द्वारा अनुमति नहीं दिए जाने पर पंजाब जाकर श्री प्रेमचन्द जी म.सा. के पास दीक्षित हो गये थे । स्वभाव- मेल न होने के कारण असमाधि का अनुभव कर अलग हो गए थे। अब इन सन्तों को मिलाकर आचार्य श्री ठाणा १० से अजमेर में विराज रहे थे ।
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अजमेर से विहार कर पूज्य श्री ठाणा ५ से बडू, बोरावड़ होते हुए कुचामन पधारे । यहाँ मासकल्प विराजे । | रीयां वाले सेठ श्री फतेहमलजी तेजमलजी मुणोत का यहाँ पुराना घर था। सेठजी साहित्य प्रेमी थे। उनकी प्रेरणा से ही रत्नवंश के महान् चर्चावादी जिनशासन प्रभावक स्वामीजी श्री कनीराम जी म. ने यहाँ सिद्धान्तसार नामक