________________
सम्पादकीय
स्वामी जी श्री हरकचन्द जी म.सा. एवं आचार्य श्री शोभाचन्द्र जी म.सा. की सेवा में चरितनायक एवं माता रूपादेवी की दीक्षा-भावना का निरूपण है। तृतीय अध्याय में चरितनायक की पावन दीक्षा का, चतुर्थ अध्याय में संवत् 1977 से संवत् 1983 तक पूज्य गुरुदेव आचार्यप्रवर श्री शोभाचन्द्र जी म.सा. की सेवा में रहकर श्रमणाचार के अभ्यास एवं अध्ययन में प्रौढ़ता अर्जन के साथ संघनायक के रूप में चयन का वर्णन है। पंचम अध्याय में आचार्यप्रवर श्री शोभाचन्द्र जी म.सा. के स्वर्गारोहण के अनन्तर स्वामी जी श्री सुजानमल जी म.सा. के संघ-व्यवस्थापत्व एवं स्वामी जी श्री भोजराज जी म.सा. के परामर्शदातृत्व काल (संवत् 1983-1987) के कार्यों का निरूपण हुआ है। षष्ठ अध्याय में चरितनायक के आचार्य पद-आरोहण, सप्तम अध्याय में उनके विहार एवं चातुर्मासों के महत्त्व, अष्टम अध्याय में संघनायक बनने के पश्चात् प्रथम चातुर्मास (संवत् 1987) का वर्णन है। इसके पश्चात् के नवम से लेकर चौबीसवें अध्याय तक संवत् 1988 से 2047 तक के विभिन्न चातुर्मासों एवं विचरण-विहार का उपलब्धियों एवं प्रमुख घटनाओं के साथ उल्लेख किया गया है। इन अध्यायों ।। में अजमेर साध-सम्मेलन, सादडी सम्मेलन, सोजत सम्मेलन एवं भीनासर सम्मेलन में आचार्यप्रवर की भूमिका 'को रेखांकित करने के साथ विभिन्न सम्प्रदायों के सन्त-वरेण्यों के साथ मधुर-मिलन के प्रसंगों को स्थान दिया गया है। उन्नीसवाँ अध्याय आचार्य श्री शोभाचन्द्र जी म.सा. की दीक्षा शताब्दी एवं चरितनायक की दीक्षा अर्द्धशती पर हुए तप-त्याग के उल्लेख से समन्वित है। पच्चीसवाँ अध्याय पाली से निमाज पदार्पण एवं तप-संथारापूर्वक महाप्रयाण साधना का संक्षिप्त दस्तावेज है।
द्वितीय खण्ड में आचार्यप्रवर के दर्शन एवं चिन्तन को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। यह खण्ड दो अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय 'अमृत वाक' में आचार्यप्रवर के आध्यात्मिक, साधनाशील एवं उर्वर मस्तिष्क में उदित विचारों को संकलित किया गया है। आपके प्रवचन-साहित्य एवं दैनन्दिनियों से चयनित ये विचार जन-जन के लिए मार्गदर्शक हैं तथा किंकर्तव्यविमूढ़ और उलझे हुए मस्तिष्क को सम्यक् समाधान प्रदान करते हैं। अल्प शब्दों में गहन गम्भीर भावों से भरे ये विचार अज्ञान रूपी अंधकार में भटके मोक्ष पथिक के लिए ज्योति-स्तम्भ की भांति सन्मार्ग का बोध कराते हैं तथा पाठक के भीतरी विकारों को दग्ध कर आन्तरिक आनन्द की अनुभूति कराने में सक्षम हैं। एक-एक वचन अमृततुल्य होने के कारण इस अध्याय का नामकरण 'अमृत वाक्' किया गया है। अध्यात्म एवं साधना के शिखर का स्पर्श कर लेने वाले वे महात्मा यदि स्वयं अमृत वचनों का सुव्यवस्थित रीति से लेखन करते तो इन वचनों की संख्या और गुणवत्ता दोनों में अधिक निखार आ सकता था।
इस खण्ड के द्वितीय अध्याय 'हस्ती उवाच' में 129 विषयों पर पूज्यपाद आचार्यप्रवर के मार्गदर्शक एवं प्रेरक विचारों का संकलन किया गया है। विचारों के इन विषयों का प्रस्तुतीकरण अकारादि क्रम से किया गया है। इनमें दर्शन, अध्यात्म, साधना, जीवन-निर्माण, समाज-सुधार आदि अनेक विषयों पर प्रकाश प्राप्त होता है। स्वाध्याय और सामायिक पूज्यप्रवर की प्रेरणा के प्रमुख विषय रहे हैं। प्रार्थना, भक्ति या स्तुति पर आपके मौलिक विचार हर भक्त या स्तुति-कर्ता को लौकिक कामनाओं के मायाजाल में भटकने से बचाते हैं। आपने बालक-बालिकाओं में संस्कार, नारी-शिक्षा, यवक जागरण आदि जन-कल्याण के विषयों के साथ आत्मशक्ति, अनासक्ति, वैराग्य, ज्ञान, वीतरागता, सम्यक्त्व, आचरण, तप, ध्यान, प्रतिक्रमण, पर्युषण, परिग्रह-परिमाण, साधक-जीवन आदि आध्यात्मिक एवं साधनापरक विषयों पर सुन्दर विचार प्रकट किए हैं। दार्शनिक विषयों पर भी आपका चिन्तन स्पष्ट एवं व्यवस्थित है। अनेकान्तवाद-स्याद्वाद, कर्मवाद, कार्य-कारण सिद्धान्त, द्रव्य और पर्याय आदि विषयों पर उद्भूत आपके विचार इसके साक्षी हैं। श्रावकों एवं श्रमणों दोनों को
rmer.rre
----TAMLILABANNERAKASHLEEL-
ALI