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________________ संघनायक के विहार और चातुर्मास जैन सन्तों की विहारचर्या और वर्षावास उनके संयममय जीवन के अनिवार्य अंग हैं। यह प्रश्न स्वाभाविक है कि विहार क्यों? संयम की साधना का अनिवार्य सूत्र है-अनासक्ति । शास्त्रसम्मत अवधि से अधिक एक स्थान पर रहना साधु को नहीं कल्पता। यदि वह एक ही स्थान पर उन्हीं लोगों के साथ अधिक काल तक रहे तो कदाचित् | वहां के लोगों से पारस्परिक आसक्ति होना सम्भव है, जबकि धर्म आसक्ति को तोड़ने के लिए है, उसे जन्म देने के लिए नहीं। अतः भगवान महावीर के द्वारा साधु-साध्वी की चर्या में विहार को आवश्यक बताया गया है। इसके लिए एक लौकिक कथन भी है "बहता पानी निर्मला, पड़ा गंदला होय।" साधु तो रमता भला, दागे न लागे कोई॥ सम्पूर्ण राजस्थान आपके विचरण-विहार का प्रमुख केन्द्र रहा। साथ ही आपने अपने जीवनकाल में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र , आन्ध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, उत्तरप्रदेश, दिल्ली, हरियाणा एवं गुजरात प्रान्तों के सहस्रों ग्राम-नगरों में जिनशासन की अद्भुत प्रभावना की। विहार का दूसरा उद्देश्य जन-जन का कल्याण है। श्रमण-श्रमणी को जो ज्ञान और क्रिया की साधना प्राप्त है, उसका लाभ वे जन-जन में पहुंचाते हैं। संसार में योगियों को जो कुछ प्राप्त है, उसे वे करुणा, अनुकम्पा और मैत्रीभाव से वितरण करते हैं। आचार्य श्री ऐसी भागीरथी थे जिन्होंने अपने विहारकाल एवं विभिन्न चातुर्मासों में जन-जन की अध्यात्म-तृषा को तृप्त करने के लिए उन्हें सामायिक और स्वाध्याय के प्रवाह से जोड़ा। आचार्य श्री का फरमाना था कि जिस प्रकार शरीर की पुष्टि के लिए व्यायाम आवश्यक है उसी प्रकार मन को स्वस्थ बनाने के लिए सामायिक उपयोगी है। आत्म-स्थित कषायों की विजय का यह प्रथम सोपान है। व्यक्ति स्वयं का जीवन तो इसके माध्यम से निर्मल एवं व्यवस्थित बनाता ही है, साथ ही उसके परिवार और समाज के साथ भी सम्बंध सुधरते हैं। आचार्यप्रवर ने दूसरा शंखनाद स्वाध्याय का फूंका। जैन समाज में इससे पूर्व स्वाध्याय की बहुत ही क्षीण परम्परा रही है जिसे अपने प्रवचनामृतों से चरितनायक ने पुनरुज्जीवित किया। गुरुदेव का फरमाना था कि स्वाध्याय के बिना जीवन को प्रकाश नहीं मिलता। स्वाध्याय से जीवन की अधिकांश समस्याओं का निराकरण स्वतः हो जाता है और व्यक्ति को सही समझ और सम्यक् दिशा मिलती है। आचार्य श्री का बल जीवन उन्नायक शास्त्रों और सत्साहित्य के अध्ययन-मनन पर था। विकृति उत्पन्न करने वाले उपन्यासों और कथाओं से वे सदैव बचने के लिए प्रेरित करते रहे। आचार्य श्री के समक्ष जो कोई भी उपस्थित होता, उसे वे न्यूनातिन्यून पन्द्रह मिनट का स्वाध्याय करने का नियम दिलाया करते थे। उन्हें लगता था कि कोई मेरे समीप अध्यात्म की प्यास और जीवन की समस्या को लेकर उपस्थित हुआ है तो उसका निराकरण करना मेरा दायित्व है । इसके लिए वे स्वाध्याय और सामायिक को औषधि के रूप में प्रदान कर प्रमुदित होते थे। यह सत्य है कि जिसने भी इन दोनों साधनों को नियमित रूप से पूर्ण | श्रद्धा के साथ अपनाया है उसे अपने जीवन में तेजस्विता एवं शान्ति की प्राप्ति हुई है। __ भारतीय भूभाग के सहस्राधिक ग्रामानुग्रामों में विहार करते हुए आपने सहस्रों नरनारियों को सामायिक और
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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