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________________ प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड इस मुनि-मंडल से थोड़ी ही दूर भूमि पर साध्वी समुदाय में से ३५ महासतियाँ विराजमान थीं- (१) महासती श्री केसर कंवर जी, (२) सुगन कंवर जी (किशनगढ़), (३) तेजाजी, (४) छोटा राधा जी, (५) सज्जनकंवर जी (ओसियां), (६) किशनाजी, (७) नैनाजी (भोपालगढ़), (८) छोगाजी, (९) केवल जी, (१०) सुन्दर कंवर जी, (११) इन्दर कंवर जी, (१२) दीप कंवर जी, (१३) भीम कंवर जी, (१४) चुन्ना जी, (१५) इचरज कंवर जी, (१६) धनकंवरजी (बड़े), (१७) हरखकंवरजी, (१८) किशनाजी (१९) धूला जी, (२०) रत्न कंवर जी, (२१) चैन कंवर जी, (२२) चरित नायक की संसार पक्षीय माताश्री रूप कंवर जी, (२३) अमर कंवर जी, (२४) सुगन कंवर जी (डागावाला), (२५) केवल जी, (२६) लाल कंवर जी, (२७) अनोप कंवर जी, (२८) गोगा जी, (२९) छोटा छोगा जी, (३०) फतहकंवर जी, (३१) बख्तावर कंवर जी, (३२) धनकंवर जी (छोटे) (३३) हुलासकंवर जी, (३४) सुवा जी और (३५) मैनाजी महाराज।। पीपाड़ में स्थिरवास की हुई पानकंवर जी, खम्माजी, सुन्दर कंवर जी, प्यारा जी और अजमेर में स्थिरवास रूप | में विराजित बड़ा राधा जी, राजकंवर जी और झमकूजी ये सात महासती जी महाराज इस महोत्सव में अपनी | वृद्धावस्था के कारण उपस्थित नहीं हो सके। सिंहपोल के प्रांगण में कहीं तिल धरने को जगह नहीं थी, तथापि उपस्थित विशाल जनसमूह पूर्णतः अनुशासित एवं शान्त था। सभी की दृष्टि चरितनायक के तेजस्वी मुखमंडल पर टिकी हुई थी। महिलाएं माताजी महाराज रूपकंवर जी के भाग्य की सराहना में उनकी कोख को लाख-लाख धन्यवाद देती कह रही थीं कि माता हो तो रूपकंवर जैसी, जिन्होंने हस्ती जैसे बालक को जन्म देकर अपने पूरे कुल का नाम रोशन किया। उनके मुखमंडल पर अथाह शान्ति और संतोष का अखंड साम्राज्य व्याप्त था। जोधपुर के जाने-माने मुसद्दियों और श्रेष्ठियों के मार्ग-दर्शन में सिंहपोल का महोत्सव-स्थल धर्म प्रभावना का भव्य एवं विराट रूप लिये सबके आकर्षण का केन्द्र बना हुआ था। चरितनायक हस्तीमलजी महाराज अपनी बालवय में भी तारामंडल से घिरे नीलगगन में पूर्ण चन्द्र के समान सुशोभित हो रहे थे। मात्र १९ वर्ष, तीन मास और उन्नीस दिन की ही तो उम्र थी। लगभग यह उम्र ‘कलिकाल सर्वज्ञ' विरुदधारी हेमचन्द्र सूरि (ईसवीय १२वीं शताब्दी) के आचार्य बनने की रही, मगर उसके बाद जैन इतिहास में सम्भवतः यह पहला ही अवसर था जबकि बीस वर्ष से कम उम्र के किशोर श्रमण को एक बहुप्रतिष्ठित संघ के गौरवपूर्ण (आचार्य) पद पर अधिष्ठित किया जा रहा हो। सम्मोहक स्वागत गीतिकाओं और जन-जन के मन को आनंदित करने वाले अभिनंदन मय काव्यपाठ के साथ महोत्सव की कार्यवाही प्रारम्भ हुई। तदनन्तर रत्नवंशीय चतुर्विध संघ के व्यवस्थापक स्थविर पद विभूषित स्वामी जी श्री सुजान मल जी महाराज ने सर्वप्रथम भाव विभोर हो सिद्ध भगवान की मंगल स्तुति प्रारम्भ की: अविनाशी अविकार, परम रसधाम है। समाधान सर्वज्ञ, सहज अभिराम है। शुद्धबुद्ध अविरुद्ध अनादि अनंत हैं। जगत् शिरोमणि, सिद्ध सदा जयवन्त हैं... सदा जयवन्त हैं। और कहा - “तप:पूत सन्त-सती वृंद एवं श्रावक-श्राविका वर्ग! आज का यह आचार्यपद महोत्सव का | मंगलमय दिवस हमारे चतुर्विध संघ के लिए अगाध आनंदप्रदायी दिवस है। यशस्विनी रत्नवंशीय- परम्परा के षष्ठ | पट्टधर स्वनामधन्य प्रातः स्मरणीय श्रद्धेय आचार्य श्री शोभाचन्द्र जी महाराज को स्वर्गस्थ हुए आज ३ वर्ष ९ मास और ३ दिन पूरे होने जा रहे हैं। उन्होंने स्वर्गस्थ होने से कतिपय मास पूर्व ही हमारे बीच विराजमान मुनिश्री
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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