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(प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड
बालक जहाँ उपद्रवी एवं नादान होते हैं, वहाँ सन्त-जीवन पूर्णत: नियमों में बंधा हुआ होता है। लघुवय के सन्त कैसे अपने चंचल मन को वश में करते होंगे ? बड़ा कठिन कार्य है। किन्तु लघुवय मुनि हस्ती ने मन, इन्द्रिय एवं शरीर | की चंचलता को जीतना प्रारम्भ कर दिया था। उन्होंने यह पाठ सीख लिया था -
एगे जिए जिया पंच, पंच जिए जिया दस।
दसहा उ जिणित्ताणं, सव्वसत्तू जिणामहं ।। एक अपनी आत्मा या मन को जीत लेने पर पांच इन्द्रियां एवं चारों कषायों को जीता जा सकता है।
__पंचिंदियाणि कोहं माणं, मायं तहेव लोहंच।
दुज्जयं चेव अप्पाणं, सव्वं अप्पे जिए जिये। उत्तराध्ययन ९.३६ आपने उत्तराध्ययन सूत्र के विनय अध्ययन के अनुसार अपनी जीवन शैली को बनाने का प्रयास करते हुए | | जान लिया था
नापुट्ठो वागरे किंचि, पुट्ठो वा नालियं वए।
कोहं असच्चं कुब्वेज्जा, धारेज्जा पियमष्पियं ।। गुरुजनों द्वारा बिना पूछे व्यर्थ न बोलना, पूछने पर झूठ नहीं बोलना, बुरा लगने पर भी क्रोध नहीं करना और गुरु के द्वारा कहे गए अप्रिय वचन को भी प्रिय या हितकारी समझना आदि विशेषताओं को मुनि हस्ती ने बाल्य अवस्था में ही आत्मसात् कर लिया। किस प्रकार के दुराचरण से कोई साधु पाप-श्रमण कहलाता है, उसे भी उन्होंने भली-भांति जानकर वर्जनीय आचरण को सर्वदा के लिए हेय समझ लिया था।
पांच समिति और तीन गुप्ति का निर्मल आचरण मुनि हस्ती की जीवनचर्या का अंग बन गया। मन, वचन एवं काया को नियन्त्रित करने की साधना में वह लघु शिल्पी सफलता की ओर दृढ कदम बढा रहा था। ईर्या, भाषा, एषणा, निक्षेपणा और परिष्ठापनिका समिति के प्रति सजगता देखते ही बनती थी।
जीवन की नश्वरता का उन्हें पहले से ही बोध था, अत: प्रमाद को त्याग कर समय का सदुपयोग करने हेतु वे तत्पर थे। 'समय' गोयम ! मा पमायए' को उन्होंने गुरुमन्त्र समझ कर अध्ययन एवं साधना की सजगता को लक्ष्य बना लिया।
दशविध समाचारी का स्वरूप एवं प्रयोग भी मुनि हस्ती को हस्तामलकवत् स्पष्ट हो रहा था। 'आवस्सई' एवं 'निस्सीहइ' शब्दों के उच्चारण उन्हें बाह्य गमनागमन की प्रक्रिया से परिचित करा रहे थे।
मुनि हस्ती गुरुदेव आचार्य श्री शोभाचन्द्र जी महाराज की आज्ञा के पालन में अपने जीवन का विकास देख रहे थे। उन्हें गुरुभ्राताओं एवं ज्येष्ठ सन्तों से भी निरन्तर दिशा निर्देश एवं प्रशिक्षण मिल रहा था।
___ पण्डित रामचन्द्र जी से संस्कृत में लघुसिद्धान्त कौमुदी, शब्द रूपावली, धातु रूपावली के साथ अमर कोष का अध्ययन चल रहा था। हिन्दी भाषा का अध्ययन भी कर रहे थे। सन्तों से आगम एवं थोकड़ों का अध्ययन चल रहा था।
चातुर्मास के अन्तिम चरण में सातारानिवासी सेठ बालमुकुन्द जी मुथा के सुपुत्र सेठ मोतीलाल जी मुथा पूज्य आचार्यप्रवर के दर्शनार्थ अजमेर पधारे। आप उस समय साधुमार्गी जैन कांफ्रेस के प्रधानमंत्री थे। आपके साथ | पण्डित दुःखमोचन जी झा भी आए थे, जो कान्फ्रेंस के साप्ताहिक पत्र जैन प्रकाश के सम्पादक थे और संस्कृत के