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(६९) सहमति अथवा अनुबन्ध से हुई है। यह सिद्धान्त हमें महाभारत, बौद्ध ग्रन्थों, कौटिल्य के अर्थ-शास्त्र तथा जैन पुराणों में मिलता है।
दीपनिकाय में विश्व की सृष्टि का वर्णन किया गया है। उसमें कहा गया है कि बहुत पहले स्वर्ण युग था। उसमें दिव्य प्रकाशवान शरीर वाले मनुष्य धर्म से आनन्दपूर्वक रहते थे। लेकिन कुछ समय पश्चात् इस अवस्था का अधःपतन हुआ। इसके फलस्वरूप समाज में अव्यवस्था तथा अराजकता व्याप्त हो गई। इस अराजकता से मुक्ति प्राप्त करने के लिए लोग एकत्रित हुए और उन्होंने एक योग्य, धार्मिक व्यक्ति का निर्वाचन किया जो समाज में फैली हुई अशान्ति और अव्यवस्था का अंत कर सकें तथा दुष्ट व्यक्तियों को दण्ड दे सकें। इस दिव्य पुरुष का नाम "महाजन सम्मत" था। यही व्यक्ति सबका स्वाकी, क्षत्रिय तथा धर्मानुसार प्रजा का रंजन करने वाला राजा कहलाया। इसकी सेवाओं के बदले में मनुष्यों ने उसे अपने धन का एक अंश देना स्वीकार किया। इस प्रकार समाज के अनुबन्ध के परिणामस्वरूप राजा की उत्पत्ति हुई। धन के बदले में राजा ने प्रजा को रक्षा एवं अव्यवस्था को दूर करने का उत्तरदायित्व वहन किया। - महाभारत में सामाजिक अनुबन्ध के सिद्धान्त का उल्लेख शान्तिपव के ६७वें अध्याय में प्राप्त होता है। महाभारत के अनुसार पूर्वकाल में स्वर्ण युग था। राज्य तथा राजा नाम की कोई व्यवस्था नहीं थी। बाद में जब अराजकता व्याप्त हो गई तथा समाज का अधःपतन होने लगा, लोग सदाचार से भ्रष्ट होने लगे, स्वर्गीय व्यवस्था ने नरक का रूप ले लिया। ऐसी परिस्थिति में मत्स्य-न्याय पनपने लगा। जिस प्रकार बड़ी मछली छोटी मछलियों का भक्षण कर जाती है उसी प्रकार बलवान निर्बलों को नष्ट करने लगे, जिसको लाठी, उसकी भैंस का सिद्धान्त प्रचलित था । इस अव्यवस्था से छुटकारा प्राप्त करने के लिए लोग ब्रह्मा के पास गये, और प्रार्थना की कि किसी व्यक्ति को उनका राजा नियुक्त करें। ब्रह्मा ने मनु को राजा बनाने के लिए कहा, लेकिन मनु सहमत नहीं हुए। मनु ने कहा कि राजा बनने पर अनेक पाप-कर्म करने पड़ते हैं,
१. दोपनिकाय, भाग ३, पृ० ६८-६६.