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( १९८) शाखा प्रकृतियाँ आठ हैं :
(१) मित्र, (२) अरि मित्र, (३) मित्र-मित्र, (४) अरि मित्र मित्र में चारों शत्र की भूमि से आगे की ओर तथा (५) पाणिग्राह (६) आक्रन्द (७) पाणिग्राहासार और () आक्रान्दासार ये चारों शत्र की भूमि से पीछे की ओर । इस प्रकार से आठ शाखा प्रकृतियाँ तथा पूर्व कथित चार प्रकृतियाँ मिलकर राजमण्डल की १२ प्रकृतियाँ होती हैं। .
कौटिल्य के अर्थशास्त्र तथा सोमदेवसूरि के नीतिवाक्यामृत में मण्डल के राजाआ की गणना में कुछ अन्तर है । परन्तु सिद्धान्त मूलतः एक ही है। सोमदेव सूरि ने मण्डल का निर्माण नौ तत्त्वों से बताया है :- (१) उदासीन, (२) मध्यस्थ, (३) विजीगीषु, (४) शत्रु (५) मित्र, (६) पाणिग्राह, (७) आक्रन्द, (८) आसार, (६) अन्तधि ।
सोमदेव सूरि ने मण्डल के ६ राज्यों के नाम का ही उल्लेख किया है जो कि कौटिल्य के द्वारा वर्णित मण्डल के राज्यों से साम्य रखते हैं। किन्तु जिस प्रकार कौटिल्य ने अरि मित्र, मित्र-मित्र, एवं अरि-मित्र-मित्र को इस राज्य में सम्मिलित कर लिया है। उसी प्रकार सोमदेव द्वारा प्रतिपादित मण्डल के ६ राज्यों में इन तीन राज्यों को सम्मिलित कर देने पर उनके राज्य मण्डल में भी १२ राज्य हो जाते हैं। आचार्य सोमदेव ने इनका पृथक नामोल्लेख करना उचित नहीं समझा। इसी कारण उन्होंने राज्य मण्डल में प्रमुख : राज्यों का ही वर्णन किया है।
कुछ विद्वानो ने मण्डल के तत्त्वों के साथ राज्य की प्रकृति के विभिन्न स्वरूपों का भी उल्लेख किया है। जिसके आधार पर मण्डल में १२,२६, ५४,७२,१०८ प्रकृतियो का उल्लेख मिलता है। इस सम्बन्ध में कामन्दक का कथन सर्वथा उचित ही है कि मण्डल के तत्त्वों के सम्बन्ध में विभिन्न मत हैं, किंतु १२ राज्यो का मण्डल स्पष्ट एवं सर्वविदित है।' मण्डल का मुख्य उद्देश्य यही है कि विजीगीषु उन मित्र तथा शत्र राज्यों के बीच जिन से कि वह परिवेष्ठित है, शक्ति सन्तुलन बनाये रखें। उसे अपनी नीति, तथा साधनों में इस प्रकार व्यवस्था करनी चाहिए जिससे कि उदासीन
१. कामन्दक ८, २०-४१