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(१३७ ) प्रायः सीमाप्रान्त को लेकर भी राजाओं में युद्ध हुआ करते थे। कभी-कभी विदेशी राजाओं का भी देश पर आक्रमण हो जाया करता था। चक्रवर्ती राजा अपने दल-बल सहित दिग्विजय के लिए प्रस्थान करते थे और समस्त देशों पर अपना अधिकार स्थापित कर लेते थे। ऋषभदेव के पुत्र प्रथम भरत चक्रवर्ती की कथा जैनसूत्रों में आती है। .
गंगा महानदी के तट पर विनीता नाम की नगरी थी। जो कि अल्कापुरी के समान शोभायमान थी। ऐसी विनीता राजधानी में हिमालय के समान भरत चक्रवर्ती राजा राज्य करता था। उसके शरीर में चक्र, शंख, रत्न, आदि ३६ शुभ चिन्ह थे । राज्य करते समय भरत राजा की आयधशाला में एक दिन दिव्य चक्ररत्न उत्पन्न हुआ। आयधशाला के रक्षक ने भरत महाराजा के पास आकर उन्हें जय विजय घोष से बधाई देकर इस प्रकार कहा कि हे देवानुप्रिय । आपकी आयुधशाला में दिव्य चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है । भरत महाराज तुरंत ही सिंहासन से उठे अपने कौटुम्बिक पुरुषों सहित और अपनी समस्त ऋद्धि, समस्त द्य ति, समस्त सेना, समस्त समुदाय वाजिंत्रों की ध्वनि के साथ चलते हये जहाँ आयुधशाला थी वहाँ आये और चक्ररत्न को मोर पिन्छ से पोंछा, दिव्य जल से प्रक्षालन किया, गोशीर्ष चंदन से लेप किया, नूतन गंध मालाओं से पूजा की, श्वेत रत्नमय अक्षतों से अष्टमंगल द्रव्यों का आलेखन किया। पश्चात् आठ-सात पग पीछे हट कर प्रणाम् कर बाहर निकला। इन सब कार्यक्रमों से निबट कर भरत महाराजा ने अपनी आयुधशाला के चक्ररत्न की सहायता से जम्बूद्वीप के मगध, वरदाम और प्रभास नाम के पवित्र तीर्थों पर और सिंधुदेवी पर विजय प्राप्त की। चर्म-रत्न की सहायता से उन्होंने सिंहल, बब्बार, अंग, किरात, यवनद्वीप, आरबक, रोमक, अलसंड (एलेक्जैण्ड्रिया) तथा, पिक्खुर, कालयुद्ध और जोणक नामक म्लेच्छों' वैताढ्य पर्वत के दक्षिणवासी म्लेच्छों, तथा दक्षिण-पश्चिम प्रदेश से लगातार सिंध सागर तक के प्रदेशों और रमणीय कच्छ को अपने अधिकार में कर लिया। इसके बाद तिमिसगहा में प्रवेश किया और इसका दक्षिण द्वार खोलने के लिए अपने सेनापति सुषेण को आदेश दिया । सुसेन सेना-पति भरत महाराज की आज्ञानुसार तिमिसगुहा के द्वार खोल देता है । यहाँ पर भरत राजा उम्मग्गजला और निम्मग्गजला नाम की नदियों को पार कर, अवाड़ नाम के वीर और लड़ाकू किरातों पर विजय प्राप्त