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• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा •
"मैं तो आत्मा हूँ जड़ शरीर नही : हुं तो आत्मा छु जड़ शरीर नथी" "सहजात्म स्वरुपी आत्मा हूँ : सहजात्म स्वरुप परमगुरु, सहजात्म स्वरुप परमगुरु" "भिन्न हूँ सर्व से सर्व प्रकार से : भिन्न छु सर्वथी सर्व प्रकारे...."३ "सहजानंदी शुद्धस्वरुपी/सिध्धस्वरुपी अविनाशी मैं आत्मा हूँ ...
- परमगुरु तुल्य मैं आत्मा हूँ।" "आतमभावना भावतां जीव लहे केवळज्ञान रे....."
"केवळ निजस्वभाव- अखंड वर्ते ज्ञान, कहिये केवळज्ञान ते, देह छतां निर्वाण" ।
___ "शुद्ध-बुद्ध-चैतन्यघन स्वयं ज्योति सुखधाम...." श्रीमद् राजचंद्रजी की "आत्मसिद्धि शास्त्र" एवं अन्य मंगलकृतियों का यह महासारघोष सर्वत्र गुंजित करना-अनुगुंजित करना जीवनधर्म-जीवनकार्य बन गया, एक मिशन-महामिशन बन गया सहजानंदधनजी का । वे तो दक्षिणभारत में ही नहीं, सिर्फ समूचे भारते में ही नही, सारे विश्व में भर देना चाहते थे इस वीतराग-वाणी के महाघोष को, जिसका यह पंक्तिलेखक साक्षी है । इस युग में श्रीमद्जी द्वारा व्यक्त-अभिव्यक्त हुई यह वाणी ही विश्वगुरु महावीर प्रभु की प्रतिनिधि वाणी थी. परिशद्ध परिष्कत प्रमाणित और प्रमाणभत वाणी थी - जिनवाणी थी। भद्रबाह-भद्रमनि सम महावीर प्रभु के पुरुषार्थी-महापुरुषार्थी उत्तराधिकारी इसे कैसे भुला सकते थे ?
इतिहास साक्षी है कि भद्रबाहु को, भद्रबाहु-परवर्तीकालीन जैनाचार्यों एवं निग्रंथ मुनियों को अनेक अपार कष्ट उठाने पड़े और उन पर अनेक दिशाओं से - असंख्य तेजोद्वेषी-जैनद्वेषी-अत्याचारी आततायिओं से - घोर उपसर्ग-मरणांत उपसर्ग निरंतर आते रहे - अश्वों तले कुचल डाले जाने और जिंदा जलाये जाने तक के ! पर महा-वीर के ये धीर वीर सहनशील अनुगामी इन परिस्थितियों के प्रभाव से बचकर देहभिन्न-आत्मभाव को नख-शिख साधकर डटे रहे जिनमार्ग पर ! कितकितनी अनुमोदना और अभिवंदना करें इन सभी महापुरुषों की ?
भद्रमुनि को भी यहाँ अनगिनत अपार उपसर्ग-परिषह झेलने पड़े जिन-मार्ग का अनुसरण करने में, श्रीमद्जी द्वारा प्रतिबोधित वीतराग-वाणी को प्रसारित करने में और आत्मभान सह वीतरागता साधकर सिद्ध करने में, पर वे भी डटे रहे अपने निर्धारित राज-मार्ग पर - अपनी आनंद-मस्ती में यह गाते-गवाते हुए : "छो बीजा उन्मार्गे चालता हो लाल,
अने माने सन्मार्ग प्रभाव रे तेथी डगिए नहिं राजमार्गथी हो लाल,
चालो चालो महानुभाव रे, आत्मस्वरुप आराधवा ।"
३.
सहजानंद सुधा - पृ. ५७
४. 'सहजानंद सुधा' - पृ. ११४
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