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आत्म-धर्म की ज्योति जगाने, अलख की धुनि रमाने पश्चिम भारत गुजरात कच्छ की शत्रुंजय-गिरनारभद्रेश्वर की तीर्थभूमि से उत्तर के अष्टापद और पूर्व के समेतशिखर, पावापुरी, खंडगिरि - उदयगिरि के तीर्थों की क्षेत्रस्पर्शना करते हुए और अनेक गिरिकंदराओं में समौन एकांतवास में प्रभु महावीरवत् विचरण करते हुए !
• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा •
भद्रबाहु प्रभावित पम्पा आदि जैन महाकवियों ने जिस जिनेश्वर वाणी की महिमा कन्नड़ में गाई थी, उसीकी गौरव गरिमा अपने जन्मांतर के उपकारक, 'अनन्य आत्मशरण प्रदाता' युगप्रधान, जिन - मूल मार्ग परिशोधक, गांधी-गुरु श्रीमद् राजचंद्रजीने भी निम्न महागंभीर अर्थपूर्ण शब्दों में गुजराती में गई थी, जिसका प्रतिघोष कर्णाटक की इस अविरत धरती में अनुगुंजित करने लगे महाप्रभावक महायोगी भद्रमुनि : यो. यु. श्री सहजानंदघनजी :
'अनंत अनंत भाव भेदथी भरेली भली...
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जिनेश्वरनी वाणी जेणे जाणी तेणे जाणी छे"२
अहो ! यह भी कैसा सांकेतिक योगानुयोग !
कर्णाटक और गुजरात दोनों आर्हत्-जिनों द्वारा धूलि - धूसरित आर्यप्रदेशों में कैसी एक-सी साम्यपूर्ण जिनवाणी महिमा !! दोनों वाणी- रुपों के प्रेरक-सृजक - अनुगायक भी कैसे कैसे महापुरुष !!!
भद्रबाहु - राजचंद्रजी- भद्रमुनि - सहजानंदधन : सभी आर्षयुगदृष्टा युगपुरुष, युगप्रधान महामानव..... !
भद्रबाहु परिप्लावित ऊर्वरा भूमि में भद्रमुनि पधारे - श्रीमद् राजचंद्रजी का महावीर -प्रणीत जिनमार्ग का युगसंदेश लेकर : भगवान महावीर के मूल मार्ग का वही वर्तमानकालीन युगबोध, जिसे महाप्राण-ध्यानी १४ पूर्वधर महाज्ञानी अंतिम श्रुतकेवली युगप्रधान भद्रबाहु ने किसी समय यहाँ की योगभूमि में बीज - रुप में बोया था । यहाँ की प्राणभरी हवाओं में लहराया था । यहाँ की गिरिकंदराओं में गुंजित कर गाया था ।
बस, मूल मार्ग की उसी वीर वाणी को श्रीमद्जी परिध्वनित गुंज- अनुगुंजों में भरना था । वह मूल ध्वनि थी ‘आत्मा' की । जड़ देह भिन्न केवल चैतन्यात्मा की । सदियों से भुला दी गई वीतराग मार्ग की ही आत्मा की !! देहार्थ में, जड़-क्रिया और शुष्क-ज्ञान में डुबो दी गई महासमर्थ अनंत वीर्यवान आत्मा की !!!
इन सभी महत् पुरुषों ने इस वीर वाणी- जिनवाणी को ही यहाँ अलख जगाकर, डंके की चोट पर घोषित किया-प्रतिघोषित किया । महावीर - भद्रबाहु - राजचंद्र सभी के इस आत्मघोष के दुंदुभिनाद को भद्रमुनि-सहजानंदधनजी ने कर्णाटक और समग्र दक्षिण भारत में चप्पे चप्पे पर भर दिया । सर्वत्र उनका निज मस्तीभरा यह तात्त्विक गान-घोष गुंजने लगा - • उनकी थनकती-थिरकती हुई और सभी की प्रमाद - निद्रा का महाभंग करती हुई खंजरी पर :
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श्रीमद् राजचंद्र वचनामृत : भक्ति कर्तव्य
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