________________ 'श्री सद्गुरु पत्रधारा' के कुछ बिन्दु श्रीमद् राजचंद्रजी तथा आनन्दघनजी विषयक संशोधन सद्गुणानुरागी सत्यसुधारस पिपासु सत्संग योग्य मुमुक्षु भाई प्रताप, आपका जिज्ञासा पूर्ण पत्र मिला। पी एच डी के लिए आपने जो विषय पसन्द किया है वह सचमुच अभिलषनीय है, अभिनन्दनीय है, क्योंकि उसके द्वारा परोपकार के साथ साथ स्व-उपकार भी अवश्यंभावी है / तद्विषयक मेरी सलाह इस प्रकार है : निकट भूतकाल में कतिपय स्वतंत्र वैज्ञानिक हो गये, उनमें सन्त कबीर, सन्त आनन्दघन तथा सन्त श्रीमद् राजचन्द्र अपने अपने समय के अद्वितीय चैतन्य वैज्ञानिक मान्य करने योग्य हैं। इन तीनों सत्पुरुषों को कोई सम्प्रदायवाद इष्ट न था अतः उन्होंने तो किसी धर्म के सम्प्रदाय नहीं बनाये थे / केवल धर्म का मर्म प्राप्त कर के धर्म संशोधन के द्वारा धर्मसमन्वय साधा था और उसके प्रति परिचित व्यक्तियों को इशारा किया था / इनमेंसे सन्त आनन्दघनजी अणगार होने के कारण निर्जन वनों में, गिरि कन्दराओं में तथा स्मशानों मे असंगदशा में विचरण करते रहे और वि.सं. 1730 में इस दुनिया से सदा के लिए अदृश्य हो गये / इस कारण से उनके पीछे उनका कोई अनुयायी वर्ग तैयार न हुआ। सर्वज्ञ भगवान श्री महावीर की केवलज्ञान श्रेणी जिस प्रकार तीसरी पाट पर लय हो गई, उसी प्रकार आत्मज्ञ सन्तों की आत्मज्ञान श्रेणी तीसरी पाट पर लय हो जाय तो उसमें कोई आश्चर्य नहीं और इसी कारण से उनके बाद के साधकीय गच्छसमुदाय गच्छवाद-सम्प्रदायवाद में परिवर्तित हो जाये तो उसमें भी कोई आश्चर्य नहीं / इसी न्याय से सन्त कबीर तथा सन्त श्रीमद् राजचन्द्र के नाम से सम्प्रदायवाद आरम्भ हो जाय और धर्म के नाम पर गुट-बन्दी (गच्छ, वाडाबन्धी) शुरु हो गई हो तो उसमें कोई भी सुविचारक सच्चा चिन्तक उन महापुरुषों का दोष मान ही नहीं सकता / सन्त कबीर और सन्त श्रीमद् राजचन्द्र के साहित्य को तो वर्तमान समय में उपजाऊ-ऊर्वरा भूमि समान मान सकते हैं जब कि सन्त आनन्दघनजी रचित साहित्य मेरी दृष्टि में तो गोचरभूमिवत् प्रतीत होता है क्योंकि श्री अगरचंदजी नाहटा द्वारा प्राप्त आनन्दघन साहित्य की प्राचीन हस्तलिखित प्रतियाँ तथा आज तक मुद्रित तथा अनुवादित साहित्य का अन्वेषण तथा अनुशीलन करने पर मेरे हृदय पर जो प्रभाव पड़ा है वह मैने ऊपर दर्शाया है / गोचर भूमि को ऊर्वरा बनाना यह आज की दुनिया के लिए महान पुण्यकार्य गिना जा सकता है- मानना चाहिए। यह कार्य कष्टसाध्य होने के कारण उस दिशा में कोई विरले ही दृष्टि डालें यह स्वाभाविक है / तथापि उन विरल व्यक्तियों की पंक्ति में सम्मिलित होना आप जैसे व्यक्ति के लिए कुछ कठिन नहीं है क्योंकि आपके पास तथा प्रकार का हृदय है, दिमाग है, कलम का कसब है तथा सरस्वतीपुत्र सम पण्डित सुखलालजी की निश्रा है एवं हमारे समान लंगोटीवालों की भी मैत्री है..... तो फिर..... ? महामना पण्डितजी को धर्मस्नेह ज्ञात करायें और आप भी स्वीकार करें। ॐ शान्ति..... / - सहजानंदघन (इस ग्रंथ से, पत्रांक 12: हंपी, 14-12-1969) योगीन्द्र युगप्रधान सहजानंदघन प्रकाशन प्रतिष्ठान जिनभारती. वर्धमान भारती इन्टरनेशनल फाउन्डेशन, प्रभात कोम्पलेक्स, के.जी. रोड, बेंगलोर-५६०००९.