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________________ कीति-स्पति Dt. 19-07-2018-9 होते गये। पू. पिताजी वहाँ आकर मेरे साथ, मुझे सेवा का अवसर प्रदान करने ठहरे, कीर्ति अपनी अधूरी पढ़ाई वहाँ पुनः आरम्भ कर सका (बाद में अग्रज-पुत्र भी!), पू. माताजी वहाँ आकर बसीं और कुछ काल पूना से कच्छ स्थानांतरित हुए अग्रज की पत्नी छोटी भाभी भी । अमरेली के बाद उपकारक मुनिश्री भुवनविजयजी का लींबड़ी में भी समागम हुआ। लींबडी के मेरे उपर्युक्त ग्रंथालयी के रूप में कार्य के दौरान मेरी लींबडी के लघु-नगर की सांस्कृतिक-साहित्यिक प्रवृत्तियाँ भी बनती चलीं और सर्वजनों का एवं संस्था-ट्रस्टियों का अपार प्रेम मुझको एवं कीर्ति को प्राप्त हुआ । उदारहृदय पूज्य मुनिश्री, जो कि बार बार वहाँ आते रहते थे, हम दोनों के पुस्तकालय के साथ साथ समाजोपयोगी कार्यों से संतुष्ट होकर हम पर अपनी आशीर्वाद-वर्षा करते रहते थे। _ कीर्तिने अपनी विद्यालयीन शिक्षा के साथ साथ, मेरे ग्रंथालय की अनेक उपयोगी पुस्तकों से अपनी जिज्ञासा-तृषा तृप्त की । उसने विशाल अध्ययन आरम्भ किया । राष्ट्रीय एवं आंतराष्ट्रीय साहित्य, विशेष कर भारत के स्वातंत्र्य-वीरों को और रुसी एवं चाइनीज़ क्रान्तिकारों स्टेलिन-लेनिनमास-माओ सभी को उसने चुन चुन कर पढ़ डाला । राजचन्द्र, विवेकानंद, रामतीर्थ, महात्मा गांधी, सुभाष बाबु, भगतसिंह आदि अनेक महापुरुषों एवं क्रान्तिवीरों की जीवनियाँ भी उसने गहराई से पढ़ी। मैं उसे इस विकसित होते हुए अध्ययन रस में प्रोत्साहन देता रहा । हमारे बाल्यावस्था के राष्ट्रीयता के संस्कार इससे सुदृढ़ हो रहे थे । कीर्ति ने उक्त अध्ययन के अतिरिक्त अपने सम-प्रकृति के मित्रों का एक क्रान्ति-वर्तुल भी वहाँ बनाया था। वे सभी पुस्तकालय के निकट की भोगावा नदी के सूखे पट पर जाकर चिंतन भी करते और कई खेल-व्यायाम भी । इसी बीच भावनगर के निकट सथरा गाँव के सागरतट पर आयोजित होने जा रहे एक युवा क्रान्तिकार तालीम शिबिर की हमें लींबड़ी में सूचना मिली।शहीद वीर भगतसिंह के अनुयायी सरदार पृथ्वीसिंह आझाद, 'स्वामीराव', उसका संचालन करनेवाले थे । कीर्तिने उसमें प्रविष्ट होने के लिये मेरी अनुमति और शिविर-शुल्क एवं अन्य खर्चादि की माँग की।मैंने उसे सहर्ष स्वीकार-प्रदान किया। कीर्ति अपने कुछ मित्रों के साथ बड़े आनंदोत्साह सह वहाँ जा पहुँचा । इस शिविर में उसने अपने समर्पित भाव से न केवल कुछ शारीरिक एवं बौद्धिक शिक्षा-विशेषताएँ पाईं, किन्तु तञ्जन्य पारी प्रतियोगिताओं में प्रथम स्थानों की प्राप्ति भी की और सरदार पृथ्वीसिंह का प्रेमपात्र लाडला भी बन गया ! उस शिविर की समाप्ति के बाद भी वह पृथ्वीसिंहजी के साथ रहना और उनके कार्योक्रान्तिकार्यों में हाथ बँटाना चाहता था । उसने यंत्र के समान शालाकीय शिक्षा से अपनी रुचि खो दी थी, उसकी भीतरी वृत्ति क्रान्तिकार्यों के लिये ही तैयार हो गई थी और सरदार पृथ्वीसिंह के प्रति भी हमारे परिवारजनों का समादर बढ़ा था, इसलिये हम सभी ने कीर्ति को उनके साथ भेजना स्वीकार किया । परन्तु उस समय स्वयं पृथ्वीसिंहजी के ही अन्य कार्यों की अग्रताएँ एवं मर्यादाएँ थीं इसलिये तत्काल वे उसे साथ नहीं ले जा सके, फिर भी पत्रव्यवहार से कीर्ति को वे आगे मार्गदर्शन देते रहे और कीर्ति भी अपनी व्यायामादि प्रवृत्तियों, क्रान्ति-वर्तुल-बैठकों और ग्रंथालय-पुस्तकों के अध्ययन
SR No.032327
Book TitleKarunatma Krantikar Kirti Kumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherVardhaman Bharati International Foundation
Publication Year
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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