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जन-जन का
* अष्टमांश भूमि साधन यंत्र *
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वास्तुसार
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अष्टमांश स्थापना
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भूमिलक्षण फल
जिस भूमि में बीज बोने से तीन दिन में उग जायँ ऐसी, समचोरस, दीमक - रहित, फटी हुई न हों ऐसी, शल्य रहित तथा जिसमें पानी का प्रवाह पूर्व, ईशान या उत्तर की ओर जाता हो अर्थात् पूर्व, ईशान या उत्तर की ओर नीची ऐसी भूमि सुख देने वाली होती है, दीमकयुक्त भूमि व्याधिकारक है, लवणयुक्त भूमि उपद्रवकारक, अधिक फटी हुई भूमि मृत्युकारक तथा शल्ययुक्त भूमि दुःख देनेवाली होती है ।
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"समरांगण सूत्रधार" में कहा गया है कि घर की भूमि में अगर नैऋत्यकोण, पश्चिम दिशा, दक्षिण दिशा, वायव्य कोण और मध्यभाग की ओर पानी का प्रवाह जाता हो, अर्थात् यह भाग नीचा हो तो वह भूमि व्याधि, दारिद्रय, रोग और वध करनेवाली है। घर बनाने की भूमि अग्रि कोण की ओर नीची हो तो मृत्युकारक है। नैऋत्य कोण की ओर नीची हो तो रोगकारक है। पश्चिम दिशा की ओर नीची हो तो धनधान्य का विनाश करनेवाली है। वायव्यकोण की ओर नीची हो तो क्लेश, प्रवास और रोगकारक है। मध्य भाग में नीची हो तो सर्व प्रकार से विनाशकारक है ।
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“समरांगण सूत्रधार” में प्रशस्त भूमि का लक्षण इस प्रकार कहा गया है - जो भूमि गरमी की ऋतु में ठंडी ठंडी की ऋतु में गरम और वर्षा की ऋतु में गरम और ठंडी - इस प्रकार समयानुकूल हो वह प्रशंसनीय है ।
वास्तुशास्त्र में कहा है कि जिस भूमि को देखने से मन और नेत्र प्रसन्न हो अर्थात् जिस भूमिको देखने से मन के उत्साह में वृद्धि हो उस भूमि पर भवन बनाना चाहिए ऐसा गर्ग आदि आचार्यों का मत है ।
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