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यथाशक्ति, समाज को सेवा भी प्रदान करें, ताकि जैनोत्थान में उसका भी कुछ योगदान हो, धन से नहीं तोतन-मन से।
जिनाराधक वास्तुग्रामों के शहर बाहर के जैन आवासों का स्वरूप "आश्रमिक" ढंग का, तीर्थस्थान के निकट का एवं विशिष्ट चुने हुए आदर्श श्रावकों का और निवृत्त श्रावकों का हो सकता है, जो अन्य ढंग से अपनी आराधना करते हए अपने साहित्य, कलादि निर्माणों - सृजनों से समाज को कुछ अर्पित कर सकें। पूर्णरूपेण विशुद्ध जैन आचार विचारमय “जैन ग्राम" जिनाराधक वास्तुग्राम हमारी आज की महत्ती आवश्यकता है।
किन्तु क्या ऐसे जैन ग्रामों, जैन आवासों के निर्माण के लिये कृतसंकल्प, निष्ठावान, जैन समाज सेवी हमारे बीच हैं ? मेरा प्रश्न पुनः पुनः उभरकर अनुगूंजित होता है - "हैं कोई ऐसे धर्मवीर -दानवीर सुश्रावक?.... है कोई ऐसे युगवीर आचार्य ??.... युगाचार्य ???..........
॥ परस्परोपग्रहो जीवानाम्॥
जन-जन का उठावास
जैन वास्तुसार
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