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शिखरबंध काष्ठ (लकड़ी के) प्रासाद का फल
उपरथ और भद्र आदि अंगवाला तथा तिलक और तवंग आदि आभूषणवाला शिखरबंध ऐसा काष्ठ (लकड़ी) का देरासर होतो वह घर में पूजने योग्य नहीं है और घर में रखना भी नहीं चाहिये। परंतु तीर्थयात्रा में साथ में हो तो उसका दोष नहीं है।
परंतु तीर्थयात्रा से लौटकर के उस शिखरबंध लकड़ी के देरासर को रथशाला में अथवा देवमंदिर में रखें। फिर कभी वैसा तीर्थयात्रा संघ निकले तब काम आ सकता है। घर मंदिर - देरासर का वर्णन
पुष्पक विमान के आकारवाला काष्ठ - लकड़ी - का देरासर बनवायें। पहले जिस प्रकार उपपीठ, पीठ और फरस बनवाने का कहा है उस प्रकार बनवायें।
चार कोने में चार थंभ, चारों दिशाओं में चार द्वार और चार तोरण और चारों बाजुछज्जे बनवायें। ऊपर करेण के फूल की कली जैसे पांच शिखर (मध्य में एक घुमट
और चारों कोनों में एक एक घुमटी) बनवायें। वैसे एक दो अथवा तीन द्वारखाला और एक घुमटवाला भी बनाया जा सकता है।
भींत (दीवार) और छज्जेवाला घर देरासर ठीक से शुभ आय आदि मिलाकर ही बनवायें। गर्भभाग समचोरस रखें। गर्भभागसेसवा गुणा उदय में रखें।
गर्भ के विस्तार से छज्जे का विस्तार सवागुना करें अथवा गर्भ का तीसरा भाग गर्भ के विस्तार में मिलाकर उतना विस्तार करें अथवा डेढ़ गुना करें। विस्तार से सवागुना उदय में और आधा निर्गम में करें।
ध्वजा स्तम्भ और तोरणवाले घर देरासर के ऊपर मंडप के शिखर जैसा शिखर करें अर्थात् मंडप के ऊपर जैसा घुमट होता है वैसा घुमट करें, परंतु करेण के फूल की कली के आकारवाला शिखर नहीं बनवायें। घर मंदिर में प्रतिमा रखें और छजे में जलवट करें।
घर देरासर में घुमट पर ध्वजादंड कभी भी न रखें, परंतु आमसार कलश ही रखें ऐसाशास्त्रों में कहा गया है। मूल ग्रंथकार की प्रशस्ति ____ श्रीधंधकलश नामक उत्तम कुलोत्पन्न शेठ 'चन्द्र' के सुपुत्र ठक्कुर फेरु ने करनाल में रहकर और प्राचीन शास्त्रों का अवलोकन कर अपने तथा पर के उपकार हेतु, विक्रम संवत् 1372 की साल में विजय दशमी के दिन घर, प्रतिमा एवं प्रासाद के लक्षणवाला यह वास्तुसार नामक शिल्पग्रंथ रचित किया है।
जन-जन का
जैन वास्तुसार
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