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(सोमपुरा लोग ध्वजादंड के साल का नाप अलग करते हैं। वे कहते हैं कि दंड जितना बाहर दीखे उतना ही ठीक उदय गिना जाता है और साल है वह शिखर में बैठाया गया होने से दीखता नहीं है, जिससे वह उदय के नाप में गिना नहीं जाता। यह युक्तिसंगत है, फिर भी उस सम्बन्ध में अनुभव करने अनुरोध है ।)
ध्वजादंड के पर्व (खंड) और चूड़ी की संख्या
ध्वजादंड में पर्व (खंड) विषम संख्या में रखें और चूडियाँ सम संख्या में रखें वह सुखकारक है ।
ध्वजादंड की पाटली का मान
दंड की लंबी के छठवे भाग जितनी लंबी मर्कटी (पाटली) बनवायें, वह लंबाई से आधे विस्तार में करें। पाटली के मुख भाग में दो अर्द्ध चंद्र का आकार बनायें । पाटली की दोनों बाजु पर घंटड़ीयाँ लगवायें और शीर्ष पर कलश रखें। अर्धचंद्र के आकारवाला भाग पाटली का मुख जानें। इस पाटली का मुख और प्रासाद का मुख एक दिशा में रखें और पाटली के मुख के पीछे के भाग में ध्वजा लगायें। पाटली की चौड़ाई (जाड़ाई) बताई गई नहीं है, परंतु 'प्रासाद मंडन' की प्राचीन भाषा - टीका में विस्तार से आधे भाग थर अथवा तीसरे भाग पर पाटली की जाड़ाई बतलाते हैं ।
ध्वजा का मान
संपूर्ण बने हुए देवमंदिर के सुंदर शिखर पर ध्वजा न हो तो उस देवमंदिर में असुरों का निवास होता है । इस लिये मोक्ष के सुख को देनेवाली दंड के बराबर लंबी ध्वजा अवश्य रखनी चाहिये।
'प्रासादमंडन' में कहा है कि ध्वजादंड की लंबी जितनी लंबी और दंड के आठवे भाग जितनी चौड़ी, अनेक वर्णों के वस्त्रों से सुशोभित (ध्वजा) करें। तीन, पांच आदि एकी पाट की शिखावाली ऐसी ध्वजा उत्तम है ।
द्वार का प्रमाण
प्रासाद के द्वार का उदय एक हाथ के विस्तारवाले प्रासाद से चार हाथ के विस्तारवाले प्रासाद तक प्रत्येक हाथ पर सोलह सोलह अंगुल की वृद्धि करके करें । जैसे कि - एक हाथ के प्रासाद के द्वार का उदय सोलह अंगुल, दो हाथ के प्रासाद के द्वार का उदय बतीस अंगुल, तीन हाथ के प्रासाद के द्वार का उदय अडतालीस अंगुल और चार हाथ के प्रासाद के द्वार का उदय चोसठ अंगुल का करें। बाद में अनुक्रम से तीन तीन और दो दो अंगुल बढ़ाकर के पचास हाथ तक के विस्तारवाले प्रासाद के द्वार का उदय करें ।
• जन-जन का
वास्तुसार
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