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१०. अगम बोल
"बापू!" का शब्द सुना, मंजुल-मृदुल सुना, प्रसन्न हंसी के साथ गैबी कोई बोल सुना, हृदय का दुःख शोक घुला, अवरुद्ध अंतरि खुला... ।
(बेंगलोर, रात पूनम, १७.८.१९८९)
परालोक में पारुल की अंतिम अभिलाषाः
११. बहे निरंतर सुर-शब्दधारा गुञ्जित हुए हैं जहाँ पर मेरे मधुर गीत-शब्द, सुस्वर, संचार
और झनझनाते रहे हैं शान्त प्रशान्त सितार-तार जहाँ हुआ है मेरे प्रसन्न वचन-पुष्प प्रस्तार, जहाँ संग्रहित हैं मेरे पठन-लेखन-चिन्तन विस्तार वहाँ- इस 'अनंत'निलय में, अनंत निवास भवन में निसृत न हो किसी के भी वि-स्वर, कटु-स्वर । बहती रहे यहाँ निरंतर सौम्य-सुमधुर, सुकोमल संगीतस्वरों
और शब्दों-पराशब्दों की ही मुखर वाग्धारा .... आनंदधारा !! अथवा मौन, नीरव, निःशब्द, अव्यक्त स्वरों की सुरधारा !! बहते रहे सदा यहाँ पर संवादमय, सुप्रसन्न, स्नेहसभर शब्द
और विरमित हो विस्वर-विसंवादपूर्ण शब्द बहते रहे यहाँ निरंतर, सदा-सर्वदा, दिव्यसंगीत के 'आहत' से 'अनाहत' की ओर ले जाते हुए, 'सांत' से 'अनंत' तक पहुँचाते हुए, परालोक-अगमलोक का अगोचर दर्श कराते हुए, अलख-धून के अनहद नाद-स्वर...!!!
ॐ शान्तिः, शान्तिः, शान्तिः।
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पारुल-प्रसून