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धीर गम्भीर सुरों में सोहे, सुरवर मुनिवर सब कोई मोहे । शब्द शब्द पर होती प्रकट जहाँ, स्नेह गंग कल्याणी ॥ मधुर०॥
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वादी षड्ज, मध्यम संवादी बात नहीं कोई विषम विवादी । सादी भाषा, शब्द सरलता; सबने समझी मानी ॥ मधुर० ॥
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'सा ग म ध नि सा नि सा' की सरगम, चाहे जग का मंगल हरदम । पत्थर के दिल को भी पलमें; करती पानी... पानी...! ॥ ॥ मधुर० ॥"
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(गीतपंक्ति) “जान लिया कि जीवनयात्रा होने आई अब पूरी । विहार का कर अंत प्रभुजी, आय बसे पावापुरी. (अतिभावमय) वह अलौकिक समवसरण ....! वह अभूतपूर्व, अखंड, अंतिम देशना !! और अमावास्या की वह अंतिम रात्रि ...!!! ( गम्भीर शांत मृदल वाद्य संगीत ध्वनि)
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"तेरी वाणी जगकल्याणी, प्रवर सत्य की धारा ।
खंड खंड हो गई दम्भ की, अंधाग्रह की कारा ।। "
इस अनंत महिमामयी जगकल्याणी वाग्- गंगा को केवलज्ञान के बाद तीस वर्ष तक निरंतर बहाते हुए और चतुर्विध धर्म को सुदृढ़ बनाते हुए अरिहंत भगवंत महावीर ने अपने ज्ञान से जब -
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सोलह प्रहर, अड़तालीस घंटे, दो दिन-रात अखंड बहने के बाद, अचानक (प्रतिध्वनि) .... पूर्ण होने लगी प्रभु की वह अखंड बहती वाग् धारा.. पर्यंकासन में स्थिर हुई उनकी स्थूल औदारिक काया .... मन-वचन- शरीर के व्यापारों का उत्सर्ग किया गया.... . अवशिष्ट अघाती कर्मों का सम्पूर्ण क्षय किया गया. सभी क्रियाओं का उच्छेद किया गया ... और (Base Voice) ... सभी अंगों और संगों को भेद कर प्राणों को विशुध्ध सिध्धात्मा की निष्क्रीय, निष्कम्प,