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जैन तत्त्वज्ञान : जैन दर्शन
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जैनदर्शन कहता है कि इस भूमिका पर पहुंचने के पश्चात् पुनर्जन्म का चक्र सदा के लिये नितान्त स्थगित हो जाता है।
ऊपर के संक्षिप्त वर्णन से हम देख सकते हैं कि अविवेक ( मिथ्यादृष्टि) और मोह (तृष्णा) ये दो ही संसार है अथवा संसार के कारण हैं। उससे विपरीत विवेक और वीतरागत्व ही मोक्ष है अथवा मोक्ष का मार्ग है। यही जीवनशोधन की संक्षिप्त मीमांसा अनेक जैन ग्रंथों में, अनेक प्रकार से, संक्षिप्त अथवा विस्तार से, और भिन्न भिन्न परिभाषाओं में वर्णित मिलती है, और यही जीवनमीमांसा अक्षरशः वैदिक एवं बौद्ध दर्शनों में भी पद पद पर दृष्टिगत होती है।
कुछ विशेष तुलना
ऊपर तत्त्वज्ञान की मौलिक जैन विचारधारा और आध्यात्मिक विकासक्रम की जैन विचारधारा का अति ही संक्षेप में निर्देश किया है। इस चालु व्याख्यान में उसके अधिक विस्तार को स्थान नहीं है। फिर भी उसी विचार को अधिक स्पष्ट करने हेतु यहाँ भारतीय अन्य दर्शनों के विचारों के साथ कुछ तुलना करनी योग्य है ।
(क) जैनदर्शन जगत् को मायावादी की भाँति केवल आभास अथवा केवल काल्पनिक नहीं मानता, परंतु वह जगत् को सत् मानता है। फिर भी जैनदर्शन संमत सत्-तत्त्व यह चार्वाक की भाँति केवल जड़ अर्थात् सहज चैतन्यरहित नहीं है। उसी प्रकार जैन दर्शन संमत सत्-तत्त्व यह शांकर वेदान्त अनुसार केवल चैतन्यमात्र भी नहीं है, परंतु जैसे सांख्य-योग, न्याय-वैशेषिक पूर्वमीमांसा और बौद्ध दर्शन सत्तत्त्व को नितान्त स्वतन्त्र एवं परस्पर भिन्न ऐसे जड़ और चेतन दो विभागों में बांट लेता है, वैसे जैनदर्शन भी सत्-तत्त्व की अनादिसिद्ध जड़ तथा चेतन ऐसी दो प्रकृति स्वीकार करता है, जो देश और काल के प्रवाह में साथ रहते हुए भी मूल में बिलकुल स्वतंत्र है। जैसे न्याय-वैशेषिक और योगदर्शन आदि ऐसा स्वीकार करते हैं कि इस जगत का विशिष्ट कार्यस्वरूप भले ही जड़ और चेतन दो पदार्थों पर से निर्मित होता हो, फिर भी उस कार्य के पीछे किसी अनादिसिद्ध समर्थ चेतनशक्ति का हाथ है, उस ईश्वरीय हाथ के सिवा ऐसा अद्भुत कार्य संभव नहीं हो सकता वैसे जैनदर्शन नहीं मानता। वह प्राचीन सांख्य, पूर्वमीमांसक और बौद्ध आदि की भाँति मानता है कि जड़ और चेतन ये दो सत्-प्रवाह अपने आप, किसी तीसरी विशिष्ट