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प्रज्ञा संचयन विचार प्रवाह का जो स्पष्ट, विकसित और स्थिररूप हमें प्राचीन या अर्वाचीन उपलब्ध जैन शास्त्रो में दृष्टिगत होता है, वह महदंश में भगवान महावीर के चिंतन को आभारी है । जैन मत की प्रधान श्वेताम्बर और दिगम्बर दो शाखाएँ हैं। दोनों का साहित्य भिन्न भिन्न है, परंतु जैन तत्त्वज्ञान का जो स्वरूप स्थिर बना हुआ है, वह दोनों शाखाओं में लेश भी परिवर्तन के सिवा एक ही जैसा है। यहाँ एक बात खास नोट करने जैसी है और वह यह कि वैदिक और बौद्ध मत के छोटे-बड़े अनेक भेद पड़े हैं। उनमें से कुछ तो एक दूसरे से बिलकुल विरोधी मंतव्य रखने वाले भी हैं। इन सब भेदों के बीच में विशेषता यह है कि जब वैदिक और बौद्ध मत के सारे ही भेदपंथ आचार विषयक मतभेदों से विशेष तत्त्वचिंतन के विषय में भी कुछ मतभेद रखतें हैं, तब जैन मत के सारे ही संप्रदाय केवल आचार भेद पर सृजित हैं। उनमें तत्त्वचिंतन के विषय में कोई मौलिक भेद अब तक देखा या लिखा गया नहीं है। केवल आर्य तत्त्वचिंतन के इतिहास में ही नहीं, अपितु मानवीय तत्त्वचिंतन के समग्र इतिहास में यह एक ही दृष्टांत ऐसा है कि इतने सारे सुदीर्घ समय का विशिष्ट इतिहास (धारण करते हुए) रखते हुए भी जिसके तत्त्वचिंतन का प्रचार मौलिक रूप से अखंडित ही रहा हो! पौर्वात्य और पाश्चात्य तत्त्वज्ञान की प्रकृति का तोलन
तत्त्वज्ञान पौर्वात्य हो या प्राश्चात्य, परंतु सारे ही तत्त्वज्ञानों के इतिहास में हम देखते हैं कि केवल जगत, जीव और ईश्वर के स्वरूप चिंतन में ही तत्त्वज्ञान पूर्ण नहीं होता है, परंतु वह अपने प्रदेश में चारित्र का प्रश्न भी हाथ में उठाता है। अधिक या अल्प अंश में एक या दूसरे प्रकार से प्रत्येक तत्त्वज्ञान अपने में जीवनशोधन की मीमांसा समाविष्ट करता है। अलबत्ता पौर्वात्य और पाश्चात्य तत्त्वज्ञान के विकास में इस विषय में हम थोड़ा अंतर भी देखते हैं। ग्रीक तत्त्वज्ञान का प्रारंभ केवल विश्व के स्वरूप विषयक प्रश्नों में से होता है। आगे चलते हुए क्रिश्चियानिटी के साथ उसका सम्बन्ध जुड़ने से उसमें जीवनशोधन का भी प्रश्न जोड़ा जाता है और फिर पाश्चात्त्य तत्त्वचिंतन की एक शाखा में जीवनशोधन की वह मीमांसा विशेष स्थान जमाती है। आख़िर अर्वाचीन समय तक भी रोमन केथोलिक संप्रदाय में हम तत्त्वचिंतन को जीवनशोधन के विचार के साथ सुश्रृंखलित देखते हैं। परंतु आर्यतत्त्वज्ञान के इतिहास में हम एक महती विशेषता देखते हैं और वह यह कि आर्य तत्त्वज्ञान का प्रारम्भ ही मानों जीवनशोधन के प्रश्नमें से हुआ हो ऐसा प्रतीत