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प्रज्ञा संचयन
उन्होंने कहा है कि ज्ञान तो भिन्न भिन्न और क्षणिक है। परंतु उन सभी प्रकार के ज्ञान के क्षणिकत्व का जो भान (प्रतीति) करता है वह स्वयं क्षणिक हो तो सभी प्रकार के ज्ञान में अपनी समरसता - तद्रूपता कैसे जान सकेगा? उनकी यह दलील गंभीर है।
३. निरीश्वर अथवा सेश्वर सांख्य जैसी परंपराएँ चेतन में वास्तविक बंध नहीं मानती हैं। वे चेतन को वास्तविक रीति से असंग मानकर उसमें कर्मकर्तृत्वपन या तो प्रकृति - प्रेरित या ईश्वर-प्रेरित आरोपण से मानतीं हैं। यह मान्यता यदि सही हो तो मोक्ष का उपाय भी निकम्मा - निरर्थक सिद्ध होगा ! इसलिये श्रीमद् आत्मा का कर्मकर्तृत्वपन अपेक्षाभेद से वास्तविक है ऐसा दर्शाते हैं। राग - द्वेषादि परिणति के समय आत्मा कर्म की कर्त्ता है और शुद्ध स्वरूप से प्रवर्तन करे तब कर्म की कर्त्ता नहीं है। उल्टा उसे स्वरूप का कर्त्ता कहा जा सकता है - इस जैन मान्यता को स्थापित करते हैं ।
४. कर्म का कर्तृत्व हो तो भी जीव उसका भोक्ता नहीं बन सकता - यह मुद्दा उठाकर श्री राजचंद्र ने भावकर्म - परिणामरूप कर्म और द्रव्यकर्म - पौद्गलिककर्म दोनों का कार्यकारणभाव दर्शाकर कर्म ईश्वर की प्रेरणा के सिवा भी किस प्रकार फल देता है यह बतलाने के लिए एक सुपरिचित दृष्टांत दिया है कि विष और अमृत यथार्थ समझे बिना भी खाने में आये हो तो जैसे उनका अलग अलग फल समय के पकने पर मिलता है, वैसे बद्ध कर्म भी योग्य काल - योग्य समय • पर स्वयमेव विपाक देता है। कर्मशास्त्र की गहनता संपूर्णरूप से श्रीमद् राजचंद्र के ध्यान में है। इसीलिये ही वे स्पष्ट करते हैं कि यह बात संक्षेप में कही है ।
५.
मोक्ष का अस्तित्व सिद्ध करने वे एक नितान्त छोटी परंतु समर्थ दलील यह प्रस्तुत करते हैं कि यदि शुभाशुभ प्रवृत्ति का फल कर्म हो तो ऐसी प्रवृत्ति में से निवृत्ति यह क्या निष्फल ? निवृत्ति तो प्रयत्न से साधी जाती है। इसलिये उसका फल प्रवृत्ति के फल से बिलकुल अलग ही संभव होता है। वह फल यही है मोक्ष !
६. मोक्ष के उपाय विषयक शंका उठाकर उसका समाधान करते हुए उपाय निरुपण किया है। और उसमें समग्र गुणस्थान क्रम की - आध्यात्मिक उत्क्रान्ति के क्रम की मुख्य मुख्य कुंजियाँ अनुभव के जरिये ही प्रस्तुत की हो ऐसा स्पष्ट भास होता है। उन्होंने केवलज्ञान की निर्विवाद और सहज ऐसी व्याख्या की है कि वह सांप्रदायिक लोगों को खास ध्यान देने योग्य है। उनके इस प्रतिपादन में उपनिषदों के
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