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प्रज्ञा संचयन
__यह सब उनकी स्मृति में सहज ही उपस्थित थे। यही कारण था कि विश्वभर के भारतीय दर्शन के विद्वान पंडितजी को नमन करते थे। ग्रंथों के संपादन के अतिरिक्त उन्होंने समय-समय पर दो सौ से अधिक लेख लिखे हैं। विभिन्न विषयों के लेखों को देखते हुए पंडितजी की बहुश्रुत प्रज्ञा का परिचय होता है। संशोधनात्मक एवं समाज को नई दिशा देनेवाले लेखों में नया उन्मेष दिखाई देता है। अनेक विषयों की सूक्ष्म विगतों की चर्चा, सूक्ष्म चिंतन एवं विषय का स्पष्ट बोध यह सब पंडितजी की सर्वत्रगामिनी प्रज्ञा का सहज ही परिचय कराता है। ___पंडितजी के चर्म-चक्षु अक्षम थे किन्तु प्रज्ञाचक्षु से वे सब कुछ देखते थे। जिज्ञासावत्ति चरम सीमा पर थी। स्वयं प्रज्ञाचक्षु होने पर भी नए-नए प्रकाशित ग्रंथों का प्रतिदिन नियमित श्रवण करते थे। उनको अपनी स्मृति में सदा ही धारण करके रखते थे। अवधारण करने की उनकी शक्ति अद्भुत थी। एक दृष्टि संपन्न व्यक्ति अपने जीवनकाल में जितने ग्रंथ पढ़ नहीं पाता उससे अधिक ग्रंथों का श्रवण पंडितजी ने किया था और जीवन के अंत तक उनको स्मृति में रखा हुआ था। पंडितजी के लेखन की एक सब से बड़ी विशेषता यह थी कि वे कुछ भी निराधार या काल्पनिक नहीं लिखते थे। विषय का पूरा अध्ययन एवं संपूर्ण जानकारी को प्राप्त करने के पश्चात् चिंतन-मनन करके वे लिखते थे।
पंडितजी विषयों का सूक्ष्मावलोकन एवं दीर्घकालीन अनुशीलन, चिंतन एवं मनन के पश्चात ही लिखते थे अतः उनके लेखों में सुधा समान अमृत की प्राप्ति होती है। पंडितजी के लेखों में एक सब से बड़ा गुण हमें दिखाई देता है वह है माध्यस्थ प्रज्ञा। पंडितजी जिस विषय पर लिखते थे उसमें हमें तटस्थ एवं पक्षपातविहीन-दृष्टि का अनुभव होता है। कहीं भी हठाग्रह, पूर्वग्रह, एकांगिता या सांप्रदायिकता की गंध भी नहीं आती है। किसी के भी प्रभाव में आए बिना तटस्थ बुद्धि से समालोचना करना पंडितजी की एक विलक्षणता थी। ' पंडितजी ने गुजराती भाषा एवं हिन्दी भाषा में लेख लिखे हैं। इन लेखों में संख्या की दृष्टि से गुजराती भाषा में प्रचुर मात्रा में लिखा है। गुजराती लेखों का संग्रह दर्शन एवं चिंतन नाम के दो भागों में प्रकाशित हआ है और एक भाग हिन्दी लेखों का प्रकाशित हुआ है। ऐसी महान विभूति के लेख केवल जैन धर्मावलंबियों के लिए ही नहीं अपितु समस्त जिज्ञासुओं के लिए उपकारी हैं। गुजराती भाषा प्रादेशिक भाषा है अतः उन लेखों का वाचन सीमित हो जाता है। हिन्दी हमारी