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पुरोवचन अनुकरणीय गुरुतर्पण
डॉ. जितेन्द्र शाह (निर्देशक, ला. द. भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अहमदाबाद) उपाध्याय यशोविजयजी ने ज्ञानसार अष्टक के ज्ञानाष्टक में लिखा है कि जिस तरह राजहंस मानस सरोवर में लीन रहता है उसी तरह ज्ञानी ज्ञान में ही लीन रहता है। ज्ञानी को ज्ञान के अतिरिक्त अन्य किसी भी विषय में आनन्द नहीं आता। आनन्द की बात तो दूर रही किन्तु पीड़ा होती है। ज्ञानी ज्ञान में ही मस्त रहता है। जीवन की प्रत्येक क्रिया में ज्ञानी ज्ञानमग्न ही होता है। ज्ञानी सोते हुए, उठते हुए, बैठे बैठे, खाते हए या अन्य बाह्य क्रिया करते हए दिखाई देते हैं किन्तु मन तो सदा ही ज्ञान की मस्ती में मस्त रहता है। जैनदर्शन के मर्मज्ञ विद्वान, प्रज्ञाचक्षु पंडित सुखलालजी संघवी भी ज्ञानमग्न ऋषि थे। उनके जीवन में भी ज्ञान की ऐसी ही मस्ती रही होगी उसका अनुभव हमें पंडितजी के लेखों को पढ़ते हुए होता है। अनेक विपदाओं के बीच में पंडितजी ने ज्ञानार्जन किया। आखों की ज्योति नष्ट हो जाने के बाद ही सभी प्रकार का अध्ययन किया जो अपने आप में आश्चर्यजनक है।
आजीवन ज्ञानमग्न पंडितजी ने अनेक प्रौढ़ एवं अत्यंत क्लिष्ट ग्रंथों का संपादन किया। ‘सन्मतितर्क हेतुबिन्दु', 'तत्वोपप्लवसिंह' जैसे दुरूह ग्रंथों का सफलतापूर्वक संपादन किया। इनमें से ‘सन्मतितर्क' ग्रंथ का संपादन सब से बड़ी चुनौती थी। १०-१२ साल की दीर्घकालीन विद्यासाधना के परिणामस्वरूप यह ग्रंथ प्रकाशित हुआ तब स्वयं गाँधीजी ने भी इस ग्रंथ के संपादन की प्रशंसा की थी। इस ग्रंथ के पाठान्तर, पादटीप एवं परिशिष्टों का अवलोकन करने पर उनकी ज्ञानसाधना को शत-शत नमन करने का मन होता है। सैंकड़ों ग्रंथों के उद्धरण, भारत के सभी दर्शनों के साथ जैनदर्शन के सिद्धान्तों की तुलना एवं समीक्षा दर्शनशास्त्र में जिज्ञासुओं के लिए रत्नकोश के समान है।