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लेखांक २ श्रीमद् राजचंद्र की आत्मोपनिषद्
पद्मभूषण प्रज्ञाचक्षु डा. पंडित श्री सुखलालजी (मूल गुजराती से अनूदित गहन अध्ययन-चिंतनपूर्ण निबंध)
भारत की अध्यात्म साधना अत्यन्त ही प्राचीन और प्रसिद्ध है । हज़ारों वर्ष पूर्व वह प्रारम्भ हुई थी। यह ज्ञात नहीं है कि किसने प्रारम्भ की, परन्तु उस साधना के पुरस्कर्ता अनेक महापुरुष प्रसिद्ध हैं। बुद्ध - महावीर पूर्व की वह ऋषि परम्परा है। उनके पश्चात् भी अब तक उस साधना को समर्पित पुरुष देश के भिन्न भिन्न स्थानों मे, भिन्न भिन्न परंपराओं में एवं भिन्न भिन्न ज्ञाति - जाति में होते आये हैं। उन सब का संक्षिप्त इतिहास भी कोई थोड़ा-सा नहीं है। वह है भी मनोरंजक एवं प्रेरणादायक परंतु यहाँ उसके लिए स्थान नहीं है। यहाँ तो उसी ही अध्यात्म - . परंपरा में समुत्पन्न श्रीमद् राजचंद्र, जो गुजरात के अंतिम सुपुत्रों में से एक असाधारण सुपुत्र हो गये, उनकी अनेक कृतियों में से बहुत प्रसिद्ध एवं आदर प्राप्त एक कृति के विषय में कुछ कहना प्राप्त है।
श्रीमद् राजचंद्र की यह प्रस्तुत कृति ‘आत्मसिद्धि' के नाम से प्रसिद्ध है। मैंने उसे शीर्षक में आत्मोपनिषद् कहा है। आत्मसिद्धि पढ़ते हुए और उस के अर्थ का पुनर्विचार करते हुए मैं यह प्रतीत किये बिना नहीं रहता कि इस छोटी-सी कृति में श्रीमद् राजचंद्र ने आत्मा से सम्बन्धित आवश्यक पूर्ण रहस्य दर्शित कर दिया है। मातृभाषा में और वह भी छोटे छोटे दोहों-छंदों में, उसमें भी तनिक मात्र भी खींचातानी किये बिना अर्थ निकाला जा सके ऐसी सरल प्रश्न शैली में, आत्मा को स्पर्श करने वाले अनेक मुद्दों का क्रमबद्ध एवं सुसंगत निरूपण देखते हुए और उसके पूर्ववर्ती जैन जैनेतर आत्मविषयक महत्त्वपूर्ण ग्रंथो के साथ तुलना करते हुए सहज