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प्रज्ञा संचयन
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संस्कार- प्रभाव थे वे सब क्षणभर में विलय हो गये, तथा सर्व दर्शनों का जो एक व्यापक सिद्धांत है कि पाप या अज्ञानरूपी अंधकार चाहे कितना ही दीर्घकालीन हो, शुद्धि एवं ज्ञान की केवल एक ही किरण से क्षणमात्र में नष्ट हो जाता है, उसका अनुभव किया । इसके बाद सन् १९३२ तक की समयावधि में दो चार बार इसी प्रकार जयंती के अवसर पर बोलने का अवसर आया, परंतु उस पुस्तक को पढ़ने का या उसके विषय में अधिक चिंतन मनन करने का मुझे समय ही न मिला अथवा मैंने इसके लिये समय नहीं निकाला। इस बार भाई श्री गोपालदास का प्रस्तुत जयंती के अवसर पर कुछ लिखकर भेजने का स्निग्ध निमंत्रण प्राप्त हुआ । कुछ अन्य कारण भी थे ही । उनमें जिज्ञासा मुख्य थी जिससे प्रेरित हो कर इस बार मैंने कुछ आराम से किन्तु सविशेष आदर के साथ एवं तटस्थ भाव से प्रायः पूरा 'श्रीमद् राजचंद्र' का श्रवण किया और साथ ही संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखवाता गया । इस विषय में विस्तार से लिखना संभव है किंतु इसके लिए जितना समय चाहिए उतना नहीं है; फिर भी प्रस्तुत निबंध में मेरी बात इस तरह से रखने का प्रयत्न करूँगा कि मेरा मुख्य वक्तव्य भी स्पष्ट हो जाये और निबंध बहुत लंबा भी न हो जाये । निष्पक्षभाव से ‘श्रीमद् राजचंद्र' ग्रंथ के लेखों पर तटस्थतापूर्वक चिंतन कर के, उनके विषय में स्थिर हुए मेरे अभिप्राय - मेरी राय यहाँ कतिपय मुद्दों पर लिखना चाहता हूँ ।
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आध्यात्मिकता :
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श्रीमद् के अंतःकरण में आध्यात्मिकता बीजरूप में जन्मसिद्ध थी । आध्यात्मिकता अर्थात् मुख्यरूप से आत्मचिंतन तथा आत्मगामी प्रवृत्ति । उसमें स्वनिरीक्षण और उसके परिणाम स्वरूप दोषनिवारण एवं गुणों के विकसित करने की वृत्ति का ही समावेश होता है। आध्यात्मिक वृत्ति में अगर दोषदर्शन हो तो मुख्य रूप से तथा सर्व प्रथम स्वदोषदर्शन की तथा अन्य लोगों के प्रधानरूप से गुणदर्शन की वृत्ति ही होती है । श्रीमद् राजचंद्र ग्रंथ पूरा पढ़ लें तो हम पर सर्व प्रथम उनकी आध्यात्मिकता का ही प्रभाव पड़ता है। 'पुष्पमाला' से लेकर अंतिम संदेश तक का कोई भी लेख या ग्रंथ लेकर उसका अध्ययन करें तो एक ही बात स्पष्टतः दिखाई कि श्रीमद् ने धर्मकथा तथा आत्मकथा के अतिरिक्त अन्य कोई बात लिखी ही नहीं है - अन्य किसी कथा का उल्लेख किया ही नहीं है। युवावस्था मे प्रवेश करने पर उन्होंने गृहस्थाश्रम का स्वीकार किया और अर्थोपार्जन का कार्य आरंभ किया