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श्रीमद् राजचंद्र - एक समालोचना है, किन्तु प्रायः पिछले बीस वर्षों से इस विषय में भी परिवर्तन आया है और एक नूतन युग का आरंभ हुआ है।
जब से पूज्य गाँधीजी ने भारत में बसने हेतु कदम रखा तब से विभिन्न प्रसंगों पर उनके मुख से श्रीमद्जी के विषय में कोई न कोई उद्गार निकलते ही रहे जिससे जड जैसे जिज्ञासु लोगों के मन में भी ऐसा विचार उठने लगा कि सत्यप्रिय गाँधीजी जिसके विषय में कुछ कहते हैं वह व्यक्ति सामान्य तो हो ही नहीं सकता। इस तरह गाँधीजी के कथनजनित आंदोलन के फलस्वरूप अनेक लोगों के मन में श्रीमद् के विषय में जानने की - जिज्ञासा की लहर उठी। दूसरी ओर ‘श्रीमद् राजचंद्र' पुस्तक तो मुद्रित था ही। उसकी दूसरी आवृत्ति भी गाँधीजी की संक्षिप्त प्रस्तावना के साथ प्रसिद्ध हुई और उसे पढ़नेवालों की संख्या में भी वृद्धि होती गई । श्रीमद् के जो एकान्तिक भक्त नहीं थे ऐसे जैन या जैनेतर तटस्थ अभ्यासी एवं विद्वानों के द्वारा भी ऐसे व्याख्यान हुए, जिनके द्वारा श्रीमद्जी के विषय में यथार्थ जानकारी प्राप्त हो सकती थी । परिणामतः तटस्थ लोगों के एक छोटे से समूह में श्रीमद्जी के विषय में वास्तविक जानकारी प्राप्त करने की प्रबल जिज्ञासा ने जन्म लिया और इन लोगों ने स्वयं ही श्रीमद् राजचंद्र' पुस्तक के अध्ययन के द्वारा अपनी जिज्ञासा का शमन करना शुरु कर दिया है । इस प्रकार के लोगों के समूह में केवल जैन कुल के ही लोगों का समावेश नहीं होता है, इस समूह में तो जैनेतर लोगों की संख्या ही कहीं अधिक है और उनमें भी अधिकतर लोग तो आधुनिक शिक्षा प्राप्त लोग भी हैं । ____ मेरे स्वयं के विषय में ऐसा हुआ कि आरंभ में जब मैं काशी में सांप्रदायिक जैन पाठशाला में रहकर अभ्यास करता था तब एक दिन रा. भीमजी हरजीवन 'सुशील' श्रीमद् के लेख (संभवतः ‘श्रीमद् राजचंद्र' ही) मुझे सुनाने के लिए मेरी कोठरी पर आये। तभी उन दिनों वहाँ विराजमान तथा आज भी जीवित मुनि - दुर्वासा नहीं, वस्तुतः सुवासा ही - अचानक वहाँ पधारे और भाई सुशील की थोड़ी सी खबर लेते हुए उन्होंने मुझे इस पुस्तक के पठन की निरर्थकता का उपदेश दिया। इसके बाद सन् १९२१ के आरम्भ में जब मैं अहमदाबाद पुरातत्त्वमंदिर में आया तब श्रीमद् की जयंती के अवसर पर कुछ कहने के लिए कहा गया तो एक दिन उपवास पूर्वक 'श्रीमद् राजचंद्र' पुस्तक आदर पूर्वक पढ़ लिया । लेकिन यह अवलोकन केवल एक ही दिन का था, अतः उसे ऊपरी अध्ययन ही कह सकते हैं। फिर भी इस पठन के परिणामस्वरूप मेरे मन पर जाने अनजाने में आज तक जो विपरीत