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लेखांक १
श्रीमद् राजचन्द्र एक समालोचना
पद्मभूषण प्रज्ञाचक्षु डा. पंडित श्री सुखलालजी (मूल गुजराती से अनूदित गहन अध्ययन-चिंतनपूर्ण महानिबंध)
ववाणिया, मोरबी, राजकोट आदि स्थानों में जहाँ श्रीमद्जी का आना - जाना और रहना विशेषतः होता था, वे स्थान मेरे जन्मस्थान तथा निवास से कुछ अधिक दूर नहीं माने जा सकते हैं। उन स्थानों की बात तो ठीक, अपने जीवन के अंतिम दिनों में वि.सं. १९५६ के आसपास श्रीमद्जी वढवाण केम्प में रहे थे वह स्थान तो मेरे गाँव से एक घंटे मे पहुँच सकें उतना ही दूर है। उतना ही नहीं, मेरे परिवार के लोगों की दुकान तथा मेरे भाई, पिताजी आदि का ठहरने का स्थान भी वढवाण केम्प में होने के कारण वह स्थान मेरे लिए सुगम ही नहीं, निवासस्थान के समान ही था । मेरी उम्र भी उस समय करीब उन्नीस साल के आसपास थी जो अपरिपक्व तो नहीं ही मानी जा सकती । दृष्टि के जाने के बाद के तीन वर्षो में सांप्रदायिक धर्मशास्त्र के अल्प किंतु गहन ऋचि के साथ किये गये अभ्यास के कारण मेरी जिज्ञासा ने उत्कट रूप धारण किया था यह मुझे याद है। उन दिनों मेरा सारा समय शास्त्रश्रवण और यथा संभव उनको आत्मसात् करने में - चिंतन-मनन करने में ही व्यतीत होता था । ऐसा होते हए भी मैं उस समय एक बार भी श्रीमद्जी को प्रत्यक्ष क्यों न मिल सका ऐसा विचार मुझे पहले भी कई बार आया है और आज भी आता है । इसके लिए मुझे एक ही कारण लगता है कि धार्मिक संकीर्णता सत्यान्वेषण तथा नूतन प्रस्थान के लिए बड़ी बाधारूप सिद्ध होती है ।