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प्राक्कथन
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सजग अध्येता को इस बात की कुछ झाँकी और पुष्टि उनके इन 'प्रज्ञा संचयन' के लेखों में से प्राप्त होगी। तीन प्रकार के विभागों में - श्रीमद्जी विषयक, जैनदर्शन विषयक और गाँधीजी विषयक - चुने हुए उनके चंद लेखों से यह परिलक्षित हो सकेगी। उनके अनेक ग्रंथों, अनेक प्रदानों, अनेक संस्मरणों, अनेक पत्रों आदि को मेरी पूर्वोक्त कृतियों में विस्तार से देख पाएंगे। यहाँ पंडितजी के एकाध-दो मुझ पर लिखे गए निजी पत्रों से यह प्राक्कथन समाप्त करेंगे। ___“आत्मसिद्धि का अनुवाद जब भी श्रवण करवाना हो तब श्री दलसुखभाई, नगीनदास, भायाणी और विमलाताई योग्य गिने जाएँगे ... मैं तो आजकल प्रायः सारा ही गंभीर श्रवण एक प्रकार से छोड़कर शाँति-सेवन करता हूँ . . . तुमने जो प्रयत्न किया है उसका फल प्राप्त होगा ही। ... तुम्हारे साहित्य, संगीत और ध्यान के मार्ग में विकास होता ही रहेगा ...।” (२५.४.१९७२ - अहमदाबाद) । "... तुम तुम्हारी कला में विकास करते जा रहे हो यह मैं समझता हूँ... तुमने जो (मेरी) सेवा की माँग की है वह तुम्हारी सच्ची सहृदयता है। तुम्हारी प्रकृति सेवालक्षी है, इसका मुझे अनुभव है। परंतु वैसे किसी को उतनी दूर से कुटुम्ब-धर्म छुड़वाकर बुलाया नहीं जा सकता। वह योग्य भी नहीं है। फिर भी तुम्हारी भावना का मेरे मन में बड़ा मूल्य है। तुम्हारा सभी का कल्याण हो।” (२२.१.१९७७ - अहमदाबाद)
पूज्य पंडितजी के इस कल्याण-कामना भरे पत्र का मेरी गंभीर बीमारी के कारण तब प्रत्युत्तर विलम्ब से इस प्रकार दे पाया -
"परमोपकारक पूज्य पंडितजी,
सविनय प्रणाम । आपके दि.२२.१.१९७७ के हमारे लिए आत्मीयतापूर्ण पत्र का, प्रथम तो आपकी सेवा में उपयोगी होने के बजाय आपकी हमारे चिंता व सद्भावना को पढ़कर दिनों तक गद्गद् हो जाने के कारण और बाद में प्रवृत्तिप्रवासों में व्यस्त हो जाने के कारण, इतने विलम्ब से उत्तर दे रहा हूँ। इस लिए अत्यन्त संकोच के साथ क्षमा चाहता हूँ। अनेकदा (यह लिख रहा हूँ तब भी) अश्रुपूर्ण यह संवेदना अनुभव की है कि आप तो सर्वथा निःस्पृह, परंतु आप के हम पर के अपार उपकारों के ऋण से हम कब मुक्त हो सकेंगे? मेरे चौदह वर्ष लगभग के