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प्रज्ञा संचयन जैन दर्शन में निहित अतिगहन विश्वोपकारक सत्यों का उद्घाटन, उनका अनेकांत अहिंसा आदिका वर्तमान में गाँधीजी जैसे युगपुरुषों द्वारा श्रीमद्जी-प्रदत्त दृष्टिपूर्वक प्रयोगीकरण और व्यक्ति नहीं, परंतु गुणप्रधान एवं आत्मतत्त्वप्रधान नवकार मंत्र की आराधनो को छोड़कर जड़-तत्त्व आश्रित मंत्र-तंत्रों की यंत्रवत् दुस्साधना का उन्मूलन - आदि आदि विशेषताएँ पंडितजी के अंतस्-प्रज्ञापूत जीवन में दृष्टिगत होती हैं। गहरे पानी पैठ कर उन्होंने विशुद्ध ज्ञान के मोती ही मोती पाए हैं। उनकी यह गहन-चिंतन-अनुचिंतन की साधना ने उन्हें अपने उस शुद्ध बुद्ध स्वयंज्योति आत्मस्वरूप का बोध करा दिया है, साक्षात्कार करा दिया है, जिसका कि श्रीमद्जी ने अपनी आत्मसिद्धि' में यह निरुपण किया है -
"शुद्ध बुद्ध चैतन्यघन, स्वयंज्योति सखधाम। बीजुं कहीए केटलं, कर विचार तो पाम ।।"
अर्थात् और अधिक क्या और कितना कहें? वह अंनंत ज्योतिर्मय स्वयंज्योति शुद्ध-बुद्ध-चैतन्यघनात्मा तुम्हारे भीतर ही तो निहित, गुप्त और सुप्त है, चिंतन के गहरे सागर में डूबकर उसे बाहर उठा ले आओ और उसका साक्षात्कार कर लो।
तो ऐसे स्वयंज्योति शुद्धात्मा का साक्षात्कार पंडितजी ने प्राप्त कर लिया था। अपनी लघुता, विनम्रता और अहंशून्यतापूर्ण मानकषायविहीन' वृत्ति से वे भले ही कहते और लिखते थे कि “मैं कोई अनुभवज्ञानी-आत्मज्ञानी व्यक्ति नहीं हूँ, शास्त्रों का ही एक अध्येता हूँ -" इत्यादि। परंतु हमने अपने अनुभव से देखा और पाया है कि वे विशुद्ध आत्मज्ञानी-आत्मदृष्टा थे ही। जैन परिभाषा में कहें तो ज्ञान-पंचक में से प्रथम दो मतिज्ञान-श्रुतज्ञान तो उन्हें सिद्ध ही थे, अवधि-मनःपर्यव को भी स्पर्श करते हुए वे पंचम ज्ञान बीज-केवलज्ञान-प्राप्ति की ओर अग्रसर हो चुके थे। 'समकित' और 'केवलज्ञान' जैसे शब्दों की तोते की रटवाली पारंपरिक, शाब्दिक, शास्त्रीय, अनुभूतिशून्य परिभाषा के उस पार उन्होंने अनुभव! तू है हेतु हमारो' कहनेवाली महायोगी आनंदघनजी की, 'अनुभवगोचर मात्र रहुं ते ज्ञान जो।' का भावनागान करनेवाली श्रीमद् राजचंद्रजी की, 'निस्पृह देश सोहामणो रे'वाली 'निज' की अनुभूति-भूमि' में उन्होंने प्रवेश कर लिया था। पंडितजी के ही नहीं, अंतस् स्वरूप के किंचित् साक्षात् स्वयं परिचय की इतनी सांकेतिक वार्ता ही यहाँ पर्याप्त है।