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प्रज्ञा संचयन
भाषाशैली एवं लेखनप्रक्रिया भी किंचित समझ में आई थी। यह बात तो बादकी थी, परंतु तब वाराणसी, फिर आगरा, फिर पूना, फिर बम्बई और अंत में अहमदाबाद आदि अनेक स्थानों में, अनेक पदों पर रहकर, अनेक रूपों में उनके द्वारा जिन चालीस जितने ग्रंथों-महाग्रंथों का सृजन हुआ, वह इस वर्तमान काल की एक अद्वितीय उपलब्धि है और श्रमण जैन संस्कृति की ही नहीं, समग्र भारतीय संस्कृति की भी मूल्यवान निधि-संपत्ति है। उनकी इस अमूल्य ग्रंथ-निधि का उत्कृष्ट सृजन गाँधीजी के गुजरात विद्यापीठ में भी हुआ। .
कितकितने और कौन-कौन से उनके ग्रंथों के नाम लें ? ग्रंथनिर्माण की, 'कर्मग्रंथ' (अनुवाद, विवेचन, विशद प्रस्तावनायुक्त) के तीन वर्ष के घोर परिश्रमपूर्ण संपादन और मुद्रण-प्रकाशन से प्रारम्भ, यह सुदीर्घ, सतत गतिशील
और अक्षुण्ण ऐसी यह ग्रंथ परंपरा थी। उसके बाद के, पं. बेचरदासजी के साथ गुजरात विद्यापीठ में नव नव वर्षों तक संपादन-कार्य कर छह छह भागों में प्रकाशित किए गए महाग्रंथ 'सन्मति तर्क' से तो महाप्राज्ञ पंडितजी की अनन्य सृजन-प्रतिभा का भारत और जगतभर के विद्वानों ने लोहा मान लिया। इन में डॉ. हर्मन जेकोबी, प्रो. लायेमन और प्रो. तमूडसे जैसे पश्चिमी विद्वान एवं महात्मा गाँधीजी, BHU के तत्कालीन वाइस चान्सलर भू.पू. राष्ट्रपति डा. एस्. राधाकृष्णन्, कलकत्ता युनिवर्सिटी के वाइस चान्सलर डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी आदि अनेकों का होना ही इस भगीरथ कार्य की महत्ता प्रस्थापित करने के लिए पर्याप्त है। पंडितजी के अन्य संपादित, संशोधित, अनूदित और विवेचित प्रायः मौलिक ग्रंथों में से कुछ थे :
आत्मानुशास्तिकुलक, कर्मग्रंथ दंडक, पंच प्रतिक्रमण, योगदर्पण, तत्त्वार्थसूत्र, जैनदृष्टि में ब्रह्मचर्य विचार, न्यायावतार, प्रमाण-मीमांसा, जैनतर्कभाषा, · हेतुबिंदु, ज्ञानबिंदु, तत्त्वोपप्लवसिंह, वेदवादद्वात्रिंशिका, आध्यात्मिक विकासक्रम, निग्रंथ संप्रदाय, चार तीर्थंकर, समदर्शी आचार्य हरिभद्र, Advanced Studies in Indian Logic and Metaphysics, धर्म और समाज, अध्यात्म विचारणा, भारतीय तत्त्वविद्या, श्रीमद् राजचन्द्र और गांधीजी, दर्शन और चिंतन, आदि आदि और भी अनेक ... ।