________________
प्राक्कथन
परंतु किसी भी कीमत पर विद्यार्जन करना ही था सो मिथिला में इस प्रकार आरम्भ कष्ट झेलकर भी कर दिया। इसी बीच उनके पास आया हुआ एकमात्र गरम स्वेटर गुरुजी को पसंद आने पर उन्हें प्रेमपूर्वक भेंट कर दिया। उसके बाद अंत में उन्हें दरभंगा में बड़े ही कृपालु अन्य विद्यागुरु मिल गए - महामहोपाध्याय पं. बालकृष्ण मिश्र - प्रखर न्यायशास्त्री, शिष्य-वत्सल, सहृदयी सज्जन एवं कवि। सुखलाल की उनके प्रति सेवा की और उनकी सुखलाल-सुयोग्य सुखलाल-के प्रति की अमीदृष्टि फली . . . ।
यहाँ तक कि इस विद्यार्जन के पश्चात् जब श्रीयुत् बालकृष्णजी बनारस के ओरियेण्टल कॉलेज में प्रिन्सिपाल बन गए तब उनके एवं पं. आनंदशंकर ध्रुव के महामना पं. मदनमोहन मालवीयजी के प्रति अनुरोध के कारण गहन अध्येता सुखलालजी को सन् १९३३ में बनारस हिन्दु युनिवर्सिटी में जैन दर्शन के अध्यापक के रूप में नियुक्त कर दिया गया। अब वे स्वयं पंडित सुखलालजी बन गए थे फिर भी वे विनय-जिज्ञासावश अपने गुरु म.म.बालकृष्णजी की शिक्षा कक्षाओं में भी यदा-कदा जा बैठते थे। बालकृष्णजी के उपकार को भी वे जीवनभर गद्गद्-कंठ से गाते रहे।
पंडितजी का अब अध्यापन-कार्य के साथ ग्रंथसृजन कार्य भी प्रारम्भ हो गया। गहन अध्ययन, सत्यान्वेषी चिंतन, तुलनात्मक संशोधन, मौलिक मूल्यांकन आदि, अपनी सभी खूबियों को मुनिश्री कर्पूरविजयजी की एक सांकेतिक टिप्पणी के बाद, उन्होंने अपने ग्रंथलेखन कार्य में ऐसा तो अनुबंधित किया कि बड़े बड़े मूर्धन्य विद्वान् भी उनकी ग्रंथलेखन की भी असामान्य प्रतिभा एवं क्षमता देखकर दंग रह गए। एक के पश्चात् एक-एक से, एक के बाद एक बढ़कर कालजयी चिरंतन ग्रंथनिर्माण उनके अंतःप्रज्ञाप्रसूत सिद्धहस्तों से होता चला। प्रस्तावित ग्रंथ विषय की गहराई में पैठकर, उस पर किये गए अनुचिंतन को स्पष्टतापूर्वक और बीच-बीच में रुककर भी उनके अनुलेखक को वे जो लिखवाते थे वह देखते ही बनता था। अर्ध-पद्मासन में सीधे मेरुदंड से घंटों बैठे-बैठे, चिंतन की गहराई में डूब डूब कर लिखवाते हुए एकाग्र पंडितजी का दर्शन करना भी धन्य अवसर होता था, एक प्रेरक दृश्य, एक सौभाग्य होता था . . .। पंडितजी का ऐसा धन्य अनुलेखक बनने का उनकी उत्तरावस्था में अहमदाबाद में इस पंक्तिलेखक को भी सौभाग्य प्राप्त हुआ था। इससे उनकी सबसे निराली चिंतनशैली, संतुलित