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करुणामय प्रजामूर्ति का महाप्रस्थान कहाँ बापू की कृश काया और कहाँ उनकी प्रतिपल चलनेवाली विविध प्रवृत्तियाँ, मन को उलझानेवाली जटिल समस्याएँ और बुद्धि को क्षुब्ध कर दे ऐसी जिम्मेवारियाँ ? फिर भी इतना सारा बोझ वे सोते-जागते, प्रतिक्षण प्रसन्न चित्त से उठाते-ढोते, इसके पीछे कौन सी शक्ति छुपी हुई थी ? इस प्रश्न का उत्तर उनकी करुणा तथा प्रज्ञा के विकास में निहित है । करुणा और प्रज्ञा की उन्होंने जो अनवरत उपासना की, जिस आध्यात्मिक जीवन का विकास किया, जिस ब्रह्मतत्त्व का अनुभव किया, अन्यजीवात्माओं के साथ जो तादात्म्य सिद्ध किया, उसीने ही उन्हें प्रवृत्तियों के एवं जिम्मेवारियों के गोवर्धन पर्वत को उठाने की ताकत दी। गांधीजी की सदा जीवंत रहनेवाली - अमर जीवनगाथा ही ईश्वर तथा आध्यात्मिक तत्त्व की शक्ति का जाज्वल्यमान प्रमाण है। परंतु आध्यात्मिक तेज सूर्य के प्रकाश की भाँति चाहे कितनाही तेजोमय एवं जाज्वल्यमान हो, फिर भी दृष्टिहीन अंध के लिए वह किसी काम का नहीं । उल्टे अंध की दृष्टि तो ऐसे तेज से घुटन का अनुभव करती है। इसी कारण से बापू की दुःखोद्धार की तथा अन्याय के प्रतिकार की वृत्ति जैसे जैसे उग्र होती गई, वैसे वैसे आध्यात्मिक दृष्टविहीन अंध लोग अधिक क्षुब्ध हुए
और क्रुद्ध हुए । परंतु ऐसा रोष अधिक से अधिक तो देह का हनन कर सकता है, करुणा तथा प्रज्ञा को तो वह छू भी नहीं सकता । जो महाकरुणा तथा जो ऋतंभरा प्रज्ञा कुछ समय पहले एक मर्यादित देह के द्वारा कार्य कर रही थी, वह करुणा तथा प्रज्ञा खुद को आलंबन देनेवाली कृश काया का अंत होने पर मानवता की महाकाया में समा गई और उसमें बसनेवाली अंतरात्मा के शुद्ध तत्त्वों का स्पर्श कर अपना कार्य अनंत मुखों के द्वारा जारी रखेगी उसमें शंका के लिए कोई स्थान नहीं है। जब सूर्यास्त होता है तब सूर्य का नाश नहीं होता, वह अन्यत्र प्रकाश फैलाता है; उसी प्रकार बापूकी करुणा तथा प्रज्ञा उस कृशकाया के द्वारा प्रकाशित न होकर मानवता की विराट काया के द्वारा अवश्य प्रकाशित होगी । घटनाक्रम तथा बापू की निर्भीकता को देखने से - उसके विषय में सोचने से ऐसा लगता है मानों मानवता की विराट काया ही उनकी करुणा - प्रज्ञा का तेज वहन करने के लिए समर्थ थी और इसी कारण से वह उसमें तदाकार हो गई। अपनी अंतरात्मा में उनकी करुणा एवं प्रज्ञा के अंशों को स्थापित कर के ही हम उन्हें वास्तविक श्रद्धांजलि अर्पित कर सकते हैं । (दिनांक १२ फरवरी १९४८ के दिन गुजरात विद्यापीठ में बापू के श्राद्धदिन को दिया गया व्याख्यान : 'संस्कृति' मासिक पत्र में प्रकाशित)