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प्रज्ञा संचयन .
किसी में न देखी गई, न अनुभूत ऐसी महाकरुणा तथा महाप्रज्ञा उन्हें इतने सहज रूप में कहाँ से प्राप्त हुई ? इस प्रश्न का उत्तर शरीर-जन्म में से प्राप्त किया नहीं जा सकता। संस्कार-जन्म, चित्त-जन्म या आत्म-जन्म के चिंतन के द्वारा ही उस प्रश्न का सहज उत्तर मिल जाता है । जन्म-जन्मांतर की साधना का संचित परिणाम न हो तो बालपन से ऐसी करणा एवं प्रज्ञा के बीज प्राप्त हों यह असंभव है।
बाल्यावस्था का बापूका जीवन बताता है कि उनमें करुणा एवं प्रज्ञा के सूक्ष्म बीज विद्यमान थे । जैसे जैसे उम्र, अभ्यास, अवलोकन तथा उत्तरदायित्त्व, बढ़ते गये वैसे वैसे ये सूक्ष्म बीज त्वरित गति से विकसित होते गये - फलने - फूलने लगे। दूसरों के दुःखों का जब तक निवारण न हो तब तक बापूके मन को शांति प्राप्त न होती थी, अन्याय का सामना किये बिना उन्हें चैन न मिलता था। उनकी इस वृत्ति ने उनके लिए इतने विविध एवं विस्तृत कार्यक्षेत्रों का सर्जन किया कि किसी एक व्यक्ति के जीवन में ऐसा हुआ हो ऐसा उल्लेख इतिहास में कहीं नहीं मिलता । करुणा तथा प्रज्ञा के जन्मसिद्ध सूक्ष्म बीजों ने केवल कबीरवृक्ष कबीरवट नहीं 'विश्ववट' का रूप धारण किया था ऐसा उनके आखिरी दिनों के उपवास तथा दिल्ही में प्रार्थना के समय दिये गये उनके प्रवचनों को देखकर कहना चाहिए।
करुणा और प्रज्ञा आध्यात्मिक तत्त्व हैं, शाश्वत हैं । उसका विकास एवं उसकी दृश्यमान प्रवृत्ति यद्यपि शरीर के द्वारा ही होती है, परंतु वह उस मर्यादित शरीर में सीमित होकर नहीं रहती । उसके आंदोलन एवं उसकी प्रतिक्रियाएँ चारों
ओर प्रसरित हो जाते हैं । बापू की करुणा तथा प्रज्ञा के आंदोलन किसी एक कौम या देश के लिए सीमित नहीं रहे हैं, दुनिया के हरेक प्रदेश में बस रही हर एक कौम में वे प्रतिध्वनित हुए हैं और इसी वजह से सारी दुनिया आज आँसु बहा रही है।
__यद्यपि बापू का शरीर भस्मीभूत हो चुका है, किन्तु उनकी महाकरुणा तथा महाप्रज्ञा अधिक विकसित हो कर विश्वव्यापी बन गईं हैं । सभी मनुष्यों में स्थित जीवनतत्त्व में जिस ब्रह्म का अथवा जिस सच्चिदानंद का अंश शुद्ध स्वरूप में निवास करता है वही सर्व जीवधारियों की अंतरात्मा है । बापू विदेही हुए अर्थात् ब्रह्मभाव को संप्राप्त हुए इसका अर्थ यह है कि उनकी करुणा तथा प्रज्ञा के विकसित अंकुर अनेक लोगों की अंतरात्मा की गहराई में प्रत्यारोपित हो गये और एकरूप हो गये।