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समर्पण :
अनंत, अज्ञात के पथ को अन्तर्यात्रा के दो पहुँचे हुए पावनात्मा महायात्री : प्रज्ञाचक्षु डा. पं. श्री सुखलालजी एवम् प्रेमयोगी स्व. गुरुदयाल मलिकजी
एक प्रज्ञापुरुष, दूसरे प्रेमपुरुष ;
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एक विद्यमान, दूसरे विदेहस्थ; एक अमृता आत्म-विद्या के प्रदाता, दूसरे परम, चिरंतन प्रेम के शास्ता, एसे दोनों उपकारक गुरुजनों के चरणपद्मों में विनम्रभाव से समर्पित हैं - मेरी अन्तर्यात्रा की ये कुछ अनुगूंजें । मेरी क्या, उनकी ही हैं ये सब जिनकी अनुगूँजों के स्वर ही मेरी इन अनुगूँजों में मिलकर मुखरित हुए हैं : 'मेरा मुझ में कछु नहीं है, जो कछु है सो तेरा, तेरा वुझ को सौंपते, क्या लगेगा मेरा ?"
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अतः उनका उन्हें हो समर्पित कर में मुक्त होता हूं अपने अहम् - बोझ से और अनुभव
करता हूं कृतकृत्यता । 'निशान्त'
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