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प्रत्यागमन मन का!
आत्म-प्रदेश के गहरे गह्वर से - उठा किसी दिन प्राण :
धधकती धड़कनों, प्रश्वासों-स्पंदनों से भरा । प्राण के इन स्पन्दनों से लहरा रहा मन :
उड़ान और आवागमन करता हुआ । . . बहुत भटका, न कहीं अटका, न शीघ्र लौटा और बीत चुका यों ही, कितना ही अपरिमित काल ! पर फिर एक दिन, घड़ियाँ छिन छिन, भटक भिन्न भिन्न, होकर संलीन वह
आया लपट में प्रश्वासों की प्राण के, और प्राण पहुंचा जब उस परिचित देश,
आत्म-प्रदेश के प्रांगण माण में ! .. तब मन बैठ गया तुरन्त वहीं, चरम बिन्दु तृप्ति का आ गया सही, अब भटकना रहा नहीं शेष कहीं ।
अनंत को अनुगूंज