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पथ और प्रहरी देखता हूँ - यह पथ दौड़ा जाता है दूर तक, सुदूर तक .... क्षितिज के उस पार, गन्तव्य की ओर |
और वापिस भी लाता है वही इस छोर : सापेक्ष और 'द्विमुख' जो ठहरा ! अचानक चल देता हूँ उस पर - कमी किसी के पीछे, कमी अकेला मस्ती में आकर कौतुहलवश, विवेकहेतू शून्य या भ्रांतहेतू कमी
बनकर ! और, न जाने क्यों, पुनः लौट आता हूं मैं - - वैसा ही वैसा पूर्ववत् ! या तो कमी, गन्तव्य के नशे से भरा हुआ ! सोचता हूं - 'यदि आ ही जाना है फिर आज के स्थान पर गन्तव्य तक जा भी आकर - तो तात्पर्य क्या है इस पंथ का, गन्तव्य का, गमन का, प्रत्यागमन का ? अनंत को अनुगूंज