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भारतीय जनपद
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के पूर्व और गोदावरी के उत्तर में स्थित था । इसकी प्राचीन राजधानी अवन्ति या उज्जयिनी थी, किन्तु राजा भोज के समय में धारानगरी राजधानी हो गयी थी ।'
लाट ( १५०.२०, १५३.५, १८५.८ ) - लाट देश के व्यापारी स्नान, विलेपन-प्रिय, सीमान्त बनानेवाले तथा सुशोभित अंगवाले थे (१५३.५) । इससे ज्ञात होता है कि लाट के पुरुष वहाँ की स्त्रियों की सुन्दरता के कारण स्वयं भी बने-ठने रहते थे लाट की स्त्रियां प्राचीन भारत में अपनी सुन्दरता के लिये प्रसिद्ध थीं । उद्योतन ने लाट देश को सब देशों में प्रसिद्ध कहा है, जहाँ की देशीभाषा (प्राकृत) मनोहरा थी । लाट की प्राकृत भाषा की प्रसिद्धि काव्य-मीमांसा (५१-५) से भी ज्ञात होती है । लाटदेश में द्वारकापुरी नाम की प्रसिद्ध नगरी थी (कुव० १८५.६ ) ।
प्राचीन समय में पूर्वी गुजरात को लाट कहते थे । विविध तीर्थकल्प ( पृ० ८८ ) के अनुसार भरुयकच्छ लाट का प्रमुख नगर था । यशस्तिलक के संस्कृत टीकाकार ने भी लाट का अर्थं भृगुकच्छ किया है ( पृ० १८० ) । इससे प्रतीत होता है कि वर्तमान भड़ौच, बड़ौदा, अहमदाबाद और खेड़ा के जिले लाट देश के अन्तर्गत रहे होंगे । गुजरात राज्य के लाळरट्ठ से प्राचीन लाट की पहिचान की जाती है । "
वत्स (३१.३ ) - कुव० में वत्स जनपद का विस्तृत वर्णन हुआ है । यह जनपद यक्ष-समूहों का केन्द्र था, निरन्तर होम के धुए से आकाश प्रच्छन्न रहता था, भैंसों की काली एवं गायों की सफेद शोभा सर्वत्र व्याप्त थी । नीले घास एवं धन-धान्य से सम्पन्न यह देश पृथ्वीरूपी युवती के लोचन-युगल की भाँति था । इस जनपद की राजधानी कोशाम्बी नगरी थी, जिसमें पुरन्दरदत्त राजा राज्य करता था (३१.१९-३२)।
जैन-परम्परा में वत्स और कोशाम्बी नगरी का अनेक बार उल्लेख हुआ बौद्धसूत्रों में इसे वंश कहा गया है, जिसका राजा उदयन था । महाभारत से ज्ञात होता है कि इस जनपद का नाम 'वत्स' इसलिए पड़ा क्योंकि काशिराज प्रतर्दन के पुत्र का पालन गोशाला में वत्सों ( बछड़ों) द्वारा किया गया
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डे० - ज्यो० डिक्श०, पृ० १२२.
का० मी०, १०९-५, सो० यस०, पृ० १८० सं० टी० ।
अस्थि पुइ - पयासो देसाण लाड - देसो ति ।
वत्थ देसभासा मणोहरा जत्थ रेहति ॥ - कुव० १८५.८
सांकलिया -एच० डी० - 'लाट, इटस् हिस्टोरीकल एण्ड कल्चरल सिगनीफिकेन्स, जर्नल आफ द गुजरात रिसर्च सोसायटी, भाग २२, नं० ४।८८, अक्टूबर १९६०, पृ० ३२९.
ज्योग्राफी आफ अर्ली बुद्धिज्म, पृ० ५८.
अत्थि लोयणजुयलं पिव पुहई - महिलाए वच्छो णाम जणवओ (३१.३-४)