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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन कि सूर्य की नवीन पूजा को पहली बार इसी स्थान पर संगठित किया गया था तथा सूर्यपूजा का यह मूल-अधिष्ठान था।
__ उद्द्योतन के इस सन्दर्भ से यह स्पष्ट होता है कि मूलस्थान का यह सूर्यमंदिर राजस्थान में प्रसिद्ध था। प्रतिहारों ने मुल्तान पर जब कब्जा करना चाहा तो अरव के शासकों ने वहाँ के सूर्यमंदिर की मूर्ति को नष्ट कर देने की धमकी दी, जिससे प्रतिहारों को पोछे लौटना पड़ा। क्योंकि वे सूर्य के उपासक थे।' मूलस्थान का यह सूर्यमंदिर युवानच्चांग तथा अल्बरूनी को भी ज्ञात था। सत्रहवीं शताब्दी तक इसका अस्तित्व रहा। बाद में औरंगजेब ने उसे पूरी तरह नष्ट कर दिया। इस सूर्यमंदिर के बाद भारत में अनेक सूर्यमंदिरों का निर्माण कराया गया था। मुल्तान से कच्छ और उत्तरी गुजरात तक बहुत से सूर्यमंदिर प्राप्त हुए हैं।
मूलस्थान का सूर्यमंदिर एवं सूर्य-पूजा पर विदेशी प्रभाव अवश्य रहा है। इसका पुजारी शाकद्वीप का निवासी मग ब्राह्मण था। साथ ही सूर्यदेवता एवं सूर्यमंदिर के स्थापत्य आदि में भी विदेशी तत्त्व सम्मिलित रहे हैं। इस सब के कारण डा० भण्डारकर का मत है कि सूर्यपूजा पारस से भारतवर्ष में आयो तथा उसी से प्रभाव से यहां सूर्य के अनेक मंदिर बनवाये गये। क्योंकि भारतीय सौरसम्प्रदाय से इन बातों का सम्बन्ध नहीं बैठता।"
रेवन्त-कुवलयमाला में समुद्री-तूफान के समय यात्री रेवन्त का स्मरण करते हैं । ६ ग्रन्थ के गुजराती अनुवादक ने रेवन्त को रहमान लिखा है, जो उचित नहीं है। भारतीय देवताओं में रेवन्त एक स्वतन्त्र एवं प्रसिद्ध देवता रहा है । अमरकोश में यद्यपि इसका उल्लेख नहीं है, किन्तु बृहत्संहिता (५८.५६) एवं विष्णुधर्मोत्तरपुराण में यह निर्देशन दिया गया है कि रेवन्त की मूत्ति घोड़े पर आरूढ़ बनानी चाहिए, जिसके चारों ओर शिकारीदल भी हो। इससे स्पष्ट है कि रेवन्त की उपासना गुप्तकाल में हो प्रारम्भ हो गयी थी। चेदि अभिलेख में रेवन्त का मंदिर बनवाने का उल्लेख है।' कालिकापुराण में रेवन्त की मूत्ति की अर्चना अथवा उसे सूर्य की भाँति जलांजलि द्वारा पूजने का उल्लेख है।
१. राजस्थान थ्र द एजेज, पृ० ३८४. २. सखाऊ का अनुवाद, भा १. पृ० ११६. ३, भण्डारकर--वै० शै०, पृ० १७७. ४. बर्जेस, 'आर्कीटेक्चरल एण्टिक्विटोज आफ नार्दन गुजरात, लन्दन, १९०३. ५. वै० शै० धा० म०, पृ० १७८. ६. को वि रेमन्तस्स, कुव० ६८,१९. ७. ह०-य० इ० क०, पू० ४६१. ८. श०-रा० ए०, पृ० ३९२. ९. उद्धृत, डवलपमेण्ट आफ हिन्दू आइकोनोग्राफी, पृ० ४४२.