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________________ धार्मिक जगत् ३८९ लोगों की थी, जो अपने आपको महाव्रतो भी कहते थे।' स्वयं उद्द्योतनसूरि ने भी ऐसे कापालिकों का उल्लेख किया है । महामांस-विक्रय की यह प्रथा इस समय बीभत्स और भीषण थी। इसके साथ ही तन्त्र-मन्त्र से सम्बन्धित कई उपासनाएँ भी प्रारम्भ हो गयी थीं। तान्त्रिक साधनाएं और उनकी विफलता उदद्योतनसूरि ने विभिन्न प्रसंगों में तान्त्रिक साधनाओं का उल्लेख किया है, जो उनके समय के धार्मिक-जगत में अपना प्रमुख स्थान बना चुकी थीं। किन्तु सम्भवतः इन साधनाओं के साथ हिंसा, अनाचार एवं स्वार्थ-सिद्धि इतनी जुड़ी हुई थी कि कोई भी आत्मकल्याण के मार्ग का साधक इनका अनुमोदन नहीं कर सकता था। उद्द्योतनसूरि ने इसीलिए इन सबका उल्लेख तो किया है, किन्तु इनके माध्यम अपने कार्य की सिद्धि चाहने वाले को अन्त में विफल ही वतलाया है। उनका यह दष्टिकोण तान्त्रिक-साधनाओं के निम्नांकित विवरण से स्पष्ट हो जाता है। - चम्पानगरी के दो बणिकपुत्र जब अन्य साधनों से धन कमाने में असमर्थ हो गये तो उन्होंने तान्त्रिक-साधना द्वारा अपना कार्य पूरा करना चाहा । कुवलयमाला में इस सब का वर्णन एक चित्रपट में अंकित बतलाया गया है। मुनिराज राजकुमार को वह यह दिखलाते हुए कहते हैं "किसी प्रकार अन्य कार्यों में चक हो जाने पर वे दोनों अनेक प्रकार के अंजन-योग में प्रवत्त हए। अंजन लगाते ही आँखों में घाव हो गया (१९१.२८) । यह मैंने इन्हें हाथ में पोथी लिये हुए किसी पुरुष को आगे करके बिल में प्रवेश करते हुए चित्रित किया है (२६)। इन्होंने सोचा था कि इससे हमें यक्षिणी सध जायेगी. जो हमारे अभीष्ट को पूरा कर देगी। किन्तु तब तक उस बिल व्याघ्र सहसा प्रगट हो गया (३०)। इधर ये दोन बणिक गुरुजनों के मुख से मन्त्र ग्रहणकर मद्रा, मंडल, समय आदि के द्वारा साधना में संलग्न हैं (३१) । किन्तु उनकी साधना के बीच में ही उनके पूर्वकृत पाप कर्मों के कारण सहसा भयंकर राक्षसरूपी रौद्र प्रगट हो गया (३२) । इस प्रकार जो-जो कार्य उन्होंने किये पूर्वकर्मों के दोष के कारण वे सब रेत के महल की भाँति विघटित हो गये (३३)। इस प्रकार असफल होकर ये दोनों काम, रति, भोग से निर्विण्ण एक देवी के चरणों में जाकर निश्चिन्त होकर बैठ गये (१९२.१)। किन्तु वह देवी कहीं दूर प्रवास में गई हुई थी। अतः यह देखो, बेचारे पत्थर के खम्भे की तरह वहीं पड़े हुए हैं (१९२.२) । जब कुछ दिनों बाद उनका शरीर सूखकर अस्थि-पंजर मात्र रह गया तो उन्होंने १. अग्रवाल, हर्ष० सां० अ०, पृ० ९०. २. द्रष्टव्य, महामास-विक्रय पर सदानन्द दीक्षित का लेख, इंडियन हिस्ट्री कांगरेस प्रोसीडिंग्स, बम्बई, १९४७, पृ० १०२-९. से वि
SR No.032282
Book TitleKuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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