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धार्मिक जगत्
३८५ आदि से युक्त प्रवृत्तियाँ पायी जाती हैं।' अपरविदेह में केवल एक-तीर्थी (जैनधर्मावलम्बी) रहते हैं, जबकि भरत क्षेत्र में अनेक कुतीथिक निवास करते हैं।
. परतीथिक-जैनधर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों के साधुओं को परतीर्थक कहा गया है, जो विद्या, मन्त्र, बल, आदि के द्वारा योग साधना करते हैं तथा सांसारिक भोगों को सुन्दर कहते हैं । 3
परिव्राजक-जैन साहित्य में परिव्राजकों के अनेक रूप वर्णित हैं। बौद्ध एवं जैन दोनों परम्पराओं में श्रमणों को इनसे दूर रहने को कहा कहा है। परिव्राजक ब्राह्मण धर्म के प्रतिष्ठित पंडित होते थे। अतः वाद-विवाद के लिए दूर-दूर तक पर्यटन करते थे। कुवलयमाला में परिव्राजकों को भोजन, वसन आदि का दान देने का उल्लेख है।" यद्यपि यह प्रसंग अंध-विश्वास का परिचायक है।
गच्छ-परिग्रह-जैन साधुओं में गच्छ-परिग्रह साधु वे आचार्य कहलाते थे, जिनके साथ अन्य शिष्य भी भ्रमण करते थे, शिष्यों का समुदाय (गच्छ) जिनका परिग्रह था। नये साधु को दीक्षित करने का अधिकार इन आचार्यों को ही था। जो साधु अकेले भ्रमण करते थे उन्हें चारण-श्रमण कहा जाता था। इन्हें किसी व्यक्ति को दीक्षा देने का अधिकार नहीं था । जो साधु अकेले घूमते थे वे दीक्षित व्यक्ति की प्रारम्भिक आवश्यकताओं की पूर्ति न कर पाते होंगे। इसीलिए चारण-श्रमण दीक्षा देने के अधिकारी नहीं माने गये । वैराग्य को प्राप्त विद्याधर श्रमण-धर्म में प्रवजित हो चारण-श्रमण बन जाते थे, जिन्हें गगनांगण में विचरण करने को विद्या सिद्ध हो जाती थी। कुवलयमाला में चारण-श्रमण का दो बार उल्लेख हुआ है (८०.१७,११.२२)। इनका प्रमुख कार्य भव्य-जीवों को उनके पूर्वभव का स्मरण दिलाकर जैनधर्म का अनुयायी बनाना है (८०.२३) । ग्रन्थ में विद्याधर-श्रमणों का उल्लेख हुआ है, जो सम्भवतः चारण श्रमण का अपर नाम है (१६२.१४, १५) । व्यन्तर देवता
विभिन्न धर्मों से सम्बन्धित प्रमुख देवताओं के अतिरिक्त कुवलयमालाकहा में कुछ ऐसे देवताओं का भी उल्लेख है, जिन्हें जैनपरम्परा में व्यन्तर देवता कहा
१. कोह-लोह-माण-मायाद ण कुतित्थाण च । -वही ५.९. २. एत्थ एगतित्थिया, तत्थ बहु-कुतित्थिया। -वही २४३.१६. ३. इह विज्जा-मंत-बलं पच्चक्खं जोग-भोग-फल-सारं।
एयं चिय सुन्दरयं पर-तित्थिय-संथवो भणिओ ॥-कुव० २१८.२७. ४. ज०-० आ० भा० स०, पृ० ४१५. ५. कुव०-१४.६. ६. जोग्गो तुमं पव्वज्जाए, किन्तु अहं ण पव्वावेमि'त्ति-अहं चारण-समणो, ण अहं
गच्छ-परिग्गहो ।- वही ८०.१५, १६. ७. जे विज्जाहरा-गयणांगण-चारिणो-होति । - कुव० ८०.१७.
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