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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन
दर्शन सोलह पदार्थ स्वीकार करता है । गौतमप्रणीत न्यायसूत्र का प्रथम सूत्र इन सोलहों पदार्थों का नाम निर्देश करता है ।' उद्योतनसूरि ने उन सोलह पदार्थों में से प्रारम्भ के तीन, मध्य का एक (निर्णय) तथा अन्त के तीन पदार्थों का समास में निर्देश करते हुए अपने समय में न्यायसूत्र का पढ़ाया जाना व्यंजित किया है । कुवलयमाला में अन्यत्र न्याय - दर्शन के सम्बन्ध में इसके अतिरिक्त और कोई जानकारी नहीं दी गयी है ।
मीमांसा दर्शन
उपर्युक्त धार्मिक मठ के प्रसंग में ग्रन्थकार ने मीमांसा दर्शन के पठन-पाठन भी बात कही है । एक व्याख्यानकक्ष में 'प्रत्यक्ष, अनुमान आदि छह प्रमाणों से निरूपित जीव आदि को नित्य मानने वाले, सर्वज्ञ (ईश्वर) नहीं है, तथा वाक्य, पद एवं शब्द- प्रमाण को स्वीकारने वाले मीमांसकों का दर्शन पढ़ाया जा रहा था । ३
आठवीं शताब्दी में पूर्व एवं उत्तर मीमांसा के दिग्गज विद्वान् उपस्थित थे, जिन्होंने अन्य भारतीय दर्शनों को भी प्रभावित किया था । प्रभाकर, कुमारिलभट्ट एवं शंकराचार्य उनमें प्रमुख थे । उपर्युक्त सिद्धान्त इनमें से किससे अधिक सम्बन्धित थे इस पर विचार किया जा सकता है ।
उपर्युक्त सन्दर्भ में छह प्रमाणों की बात कही गई है । मीमांसा के भाट्ट तथा प्रभाकर सम्प्रदायों में से भाट्ट सम्प्रदाय ही छह प्रमाणों को मानता है । प्रभाकर केवल पाँच प्रमाण मानते हैं । अतः इस आधार पर कहा जा सकता है। कि कुमारिल के ग्रन्थ का अध्ययन इस मठ में कराया जा रहा था । इसका एक सहायक प्रमाण यह भी है कि उक्त सन्दर्भ में 'सर्वज्ञ नहीं है', इस सिद्धान्त का भी प्रतिपादन हुआ है । सर्वज्ञ की नास्तिता का स्पष्ट उल्लेख कुमारिल ने ही किया है । 3 जीव को नित्य मानना मीमांसकों का सामान्य सिद्धान्त है ।
कुवलयमाला कहा में भारतीय दर्शन के उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि प्राचीन शिक्षा केन्द्रों में सभी दर्शनों का एक साथ पठन-पाठन होता था । इससे तत्कालीन शिक्षाविदों एवं धार्मिक आचार्यों के उदार दृष्टिकोण का पता चलता है । जिज्ञासुओं में चिन्तन और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता विद्यमान थी । इसके साथ यह भी ज्ञात होता है कि मूल सिद्धान्तग्रन्थों का व्याख्यान किया
१.
प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डा - हेत्वाभासछलजातिनिग्रहस्थानाना तत्वज्ञातान्निःश्रेयसाधिगमः - न्यायसूत्र, १.१.
२. कहिचि पच्चक्खाणुमाण-पमाण-छक्क - णिरूविय णिच्च - जीवादि - णत्थि - सव्वणुवाय-पद-वक्कप्पमाणाइवाइणो मीमंसया । - १५०.२९.
३.
एम० हिरियण्णा, आउट लाईन्स आफ इण्डियन फिलासफी, पृ० १३८. ४. श्लोकवात्तिक, १.५.