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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन नहीं हुआ है । अन्यत्र ग्रन्थकार ने जैनधर्म में दीक्षित नये साधु को प्रत्येकबुद्ध कहा है-'इय गव-उवहि-सणाहो जाओ पच्चेय-बुद्धो सो'-(१४१.४, ५) । प्रत्येक बुद्ध हीनयान सम्प्रदाय में ही अधिक प्रचलित शब्द है, जो अपनी मुक्ति की कामना से प्रव्रजत होता है । धार्मिक मठ के प्रसंग में उद्योतन ने कहा कि नगर में सन्ध्या समय बौद्ध विहारों में एकान्त करुणा से युक्त अर्थगभित वचनों का पारायण होता था (८३.१) । राजा दढ़वर्मन ने पुत्रप्राप्ति के लिए अन्य तपस्वियों के साथ शाक्य भिक्षुओं को भी भोजन-पान एवं चीवरादि दान में दिये थे (१४.६) । आपत्ति के समय व्यापारी बुद्ध की मनौती मांगते थे (६८.१९) ।
बौद्धधर्म के सम्बन्ध में उपर्युक्त संक्षिप्त जानकारी से यह स्पष्ट नहीं होता कि विवेच्यकाल में उसकी क्या स्थिति थी। अन्यान्य साक्ष्यों के आधार पर वौद्धधर्म पश्चिम में सिन्ध एवं पूर्व में बिहार और बंगाल में उस समय अधिक प्रचलित था। राजस्थान में इसका स्थान गौण होता जा रहा था। यद्यपि इस समय तक महायान शाखा पर्याप्त विकसित हो चुकी थी, फिर भी उद्द्योतन के किसी सन्दर्भ से इसका संकेत नहीं मिलता। लोकायत (चाक) दर्शन
उद्द्योतन ने दो प्रसंगों में लोकायत दर्शन की विचारधारा का उल्लेख किया है । उपर्युक्त मठ के आठवें व्याख्यान कक्ष में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश के संयोग विशेष से उत्पन्न चैतन्य मदिरा के मद के समान है, अत: आत्मा नहीं है, इन वादों का प्रतिपादिक लोकायत-दर्शन पढ़ाया जा रहा था।' राजा दृढवर्मन् के समक्ष एक प्राचार्य ने अपना मत प्रगट किया-'न कोई जीव है, न परलोक और परमार्थ (मोक्ष) ही। अतः इच्छानुसार खाना-पीना ही इस संसार में एकमात्र सार है । यद्यपि इस प्रसंग में ग्रन्थकार ने किसी दर्शन का नाम नहीं लिया, किन्तु इस विचारधारा का सम्बन्ध चार्वाक दशन से ही है।' जैसा कि सर्वदर्शन-संग्रह की पक्तियों की तुलना करने से स्पष्ट हो जाता है
'न स्वर्गो नापवर्गो वा नैवात्मा पारलौकिकः ।' तथा
_ 'यावज्जीवेत्सुखं जीवेदणंकृत्वा घृतं पिवेत् ।' राजा दृढ़वर्मन् ने इस विवार का खण्डन करते हुए कहा है कि यदि कोई जीव नहीं है तो यह कथन कौन कर रहा है ? अत: इन मूढ नास्तिकवादियों को तो
१. कत्थइ पुहइ-जल-जलणाणिलागास-संजोय-विसेसुप्पण्ण-चेयण्णं मज्जंग-मदं पिव
अत्तणो णत्थि-वाय-परा लोगायतिग त्ति ।-१५१.२ २. णवि अस्थि कोइ जीवो ण य परलोओ ण यावि परमत्थो ।
भुंजह खाह जहिच्छं एत्तिय-मत्तं जए सारं ॥–कुव० २०५.३१ ३. द्रष्टव्य, नन्दिसूत्र (४२, पृ० १९३), दीघनिकाय १, ब्रह्मजालसुत्त पृ० ११ में
लोकायत का वर्णन ।