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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन वनस्पति स्थावर जीवों को मारने से यदि धर्म होता है तो अग्नि को भी शीतल होना चाहिए।'
मूत्तिपूजक-न्यायोपार्जित धन से देवमंदिर बनवाकर देवताओं की पूजा, आराधना करना ही धर्म है ।२ आठवीं शताब्दी में विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना प्रचलित थी। अतः ऐसे भी कुछ आचार्य उस समय रहे होंगे जो मंदिर बनवाने और देव-पूजा के प्रचार-कार्य में संलग्न थे। स्वयं उद्योतन मूर्तिपूजक श्वेताम्बर परम्परा से सम्बन्धित थे। अतः वे इतना तो स्वीकार करते हैं कि मंदिर बनवाये जाने चाहिये, किन्तु उनमें किस देवता की स्थापना एवं अर्चना की जाय यह उनके सामने प्रश्न था।
विनयवादी-'हे नरवर ! माता-पिता, गुरुजन, देव, मनुष्य अथवा सभी को नित्य विनय करना ही धर्म है।' यह विनयवादियों का मत था। विनयवादियों का अस्तित्व उद्योतनसूरि के पूर्व भी धार्मिक जगत् में था। जैनसूत्रों में चार प्रकार के मिथ्यादृष्टियों का उल्लेख है, उनमें चौथे विनयवादी हैं।" इस मत के अनुयायियों ने बाह्यक्रियाओं के आधार पर मोक्ष प्राप्ति के लिये विनय को आवश्यक माना है। अतएव विनयवादी कोई भी जीव सामने आ जाय उसी को प्रणाम करते थे।६ आठवीं सदी तक उनकी इस विचारधारा में कोई अन्तर नहीं पड़ा था, यह उक्त सन्दर्भ से स्पष्ट है।
विनयवादियों को प्राचीन समय में अविरुद्ध नाम से भी जाना जाता था। प्राचीन साहित्य में इन्हें महावीर का समकालीन बतलाया गया है।' उस समय विनयवादियों की प्रव्रज्या को प्रणाम-प्रव्रज्या कहा जाता था, क्योंकि इनका प्रमुख कर्तव्य सभी प्राणियों को बिना किसी भेद-भाव के प्रणाम करना था। जैनधर्म के अनुसार सभी को प्रणाम करने से कुदेव एवं कुतीर्थों को मिथ्यादृष्टि कहकर आलोचना की गई है। उद्योतन के अनुसार धर्म में रत गुरुओं एवं देवों की विनय करना उचित है, किन्तु पापी-जनों को भी प्रणाम
१. वही–२०५.५. २. वही-२०५.१५. ३. को ण वि इच्छइ एयं जं चिय कीरंति देवहरयाई ।
___एत्थं पुण को देवो कस्स व कीरंतु एयाइ॥-वही २०५.१७. ४. पिउ-माइ-गुरुयणम्मि य सुरवर-मणुएसु अहव-सव्वेसु ।
णीयं करेइ विणयं एसो धम्मो णरवरिद ॥ -वही २०५.२७. ५. सूत्रकृतांग, १.१२,१. ६. उत्तराध्ययनटीका, १८, पृ० २३०. ७. अविरुद्धो विणयकरो देवाइणं परा ए भत्तीए । –औपपादिकसूत्र टीका, १६९. ८. आवश्यकनियुक्ति, ४९४, अवश्यकचूर्णी, पृ० २९८. ९. व्याख्याप्रज्ञप्ति, ३.१.