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प्रमुख-धर्म
३५५ सम्प्रदाय में होता था । अथर्व सिरस् उपनिषद् में रुद्र का अनेक देवों या आत्माओं से समीकरण किया गया है, जिनमें से एक विनायक भी है।' महाभारत में गणेश्वरों और विनायकों का देवताओं के साथ उल्लेख हुआ है, जो मनुष्यों के कार्यो को देखते हैं तथा सर्वत्र विद्यमान रहते हैं। यहाँ यह भी कहा गया है कि स्तुति किये जाने पर विनायक अनिष्टों को दूर करें। आगे चल कर मानवगृह्यसूत्र (२.१४) में विनायकों का विस्तृत वर्णन मिलता है, जिसमें विनायक को विघ्नकारी देवता माना है तथा अन्त में कहा गया है कि स्तुति करने पर वह कल्याणकारी देवता बन जाता है।
स्कन्धपुराण में विनायक का स्वरूप नास्तिकों के मार्ग में विघ्न उपस्थित करने तथा भक्तों के विघ्न दूर करने के रूप में वर्णित है। सिद्ध र्षि ने भी उसे शान्त, विघ्न-विनाशक कहा है। इससे स्पष्ट है कि विनायक स्वभावतः अनिष्टकारी देवता था तथा स्तुति करने पर कल्याणकारी हो जाता था । डा० भण्डारकर का मत है कि गणपति विनायक उपास्य देवता के रूप में ईस्वी सम्वत् के पूर्व ही प्रचलित हो गये थे। याज्ञवल्क्यस्मृति में इनका जो वर्णन उपलब्ध है, उससे ज्ञात होता है कि गुप्तकाल में गाणपत्य-सम्प्रदाय में विनायक प्रमुख हो गये थे। कुवलयमाला के विनायक संबन्धी इस साहित्यिक सन्दर्भ की पष्टि ८-९वीं शताब्दी के पुरातात्विक साक्ष्य से भी होती है । जोधपुर से २२ मील दूर उत्तरपश्चिम में घटियारा नामक स्थान पर जो वि० सं० ९१८ (८६२ ई०) का स्तम्भ मिला है उस पर उत्कीणं अभिलेख में विनायक को नमस्कार किया गया है। इससे एक बात और स्पष्ट होती है कि जोधपुर एवं जालौर के इलाके में विनायक विघ्नविनाशक देवता के रूप में प्रसिद्ध थे, जिससे उद्योतनसूरि परिचित थे।
अन्यगण-ग्रन्थ में शिव के अन्यगणों का भी उल्लेख है। किन्तु इनका तीर्थवन्दना के प्रसंग में उल्लेख किया गया है । वीरभद्र, भद्रेश्वर उनमें प्रमुख हैं। भूत, राक्षस, पिशाच एवं वेताल भी शिव के गण थे, जो महाकाल की सेवा किया करते थे। इनका परिचय व्यन्तर-देवता के अन्तर्गत दिया गया है।
शैव सम्प्रदाय से सम्बन्धित कुछ देवियों का उल्लेख भी कुवलयमाला में हुआ है। उनमें कात्यायनी और कोट्टजा प्रमुख हैं। उनके परिचय इस प्रकार हैं।
कात्यायनी-राजा दढ़वर्मन् अपनी रानी को सान्त्वना देते हुए कहता है कि त्रिशूलधारिणी एवं भैंसा के ऊपर सुन्दर चरण रखने वाली कात्यायनी के
१. डा० भण्डाकर-वै० शै० म०-पृ० १६८.७१. २. अनुशासन पर्व, १५१.२६. ३. वही, १५०.५७. ४. स्कन्दपुराण, कौमारिक २७ पृ० ९.१५. ५. उप० भ० प्र०- पृ० १. ६. द्र०, श०-रा० ए०, पृ० ३९०.